पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३९३

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सोरहवा प्रभाव भावार्थ-केशव कहते हैं कि ये उपर्युक्त दोष तो दोष माने ही न जायेंगे, इनके अलावा दीर्घ को लघु करना और लघु को दीर्घ कर देना भी जायज समझा जायगा, और 'ब' और 'व' तथा 'ज' और 'थ' एक ही समझे जा सकते हैं अर्थात् ब के स्थान पर व और च के स्थान पर ब, तथा जके स्थान पर य और य के स्थान पर ज लिखें तो भी दोष न होगा। मूल-अति रति गति मति एक करि बहु विवेक युत चित्त । ज्यों न होय क्रम भंग त्यों चरणों चित्र काचत ।।४।। भावार्थ-केशव कहते हैं कि उपर्युक्त अधिकार पाकर भी हे कविगण ! बड़े प्रेस से अपनी योग्यता और बुद्धि को एकत्र करके, चित्त को विवेक युक्त करके चित्रालंकार की इस प्रकार रचना करो जिससे पूर्व को हुए नियम और क्रम भंग न हो, अर्थात् ये अधिकार पाकर भी बिना कठिन श्रावश्यता के अधिकार का दुरुपयोग न करो, जहाँ तक हो सके पूर्व नियमों का पालन उबिस ही है। नोट--अब आगे चित्र कवित्त की रचना करते हैं। १-(निरोष्ठ वर्णन) सूल-पढ़त न लागै अधर सो अधर बरण त्यों मंडि । और बरण बरणो सबै उ प वर्गहिं सब छडि ॥ ५ ॥ भावार्थ-जिसको पढ़ते समय ओठ से ओंठ न छू जाय, उसे निरोष्ट जानो। इसकी रचनाउ ऊ और पवर्ग (प, फा, ब, भ, म, ) को छोड़ कर और सब बर्ण ला सकते हैं, क्योंकि उ ऊ, प, फ, ब भ म का उच्चारण ओठों से होता है।