पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३९४

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प्रिया-प्रकाश ( उदाहरण) मूल-लोक लीक नीकी, लाज लीलत हैं नंदलाल, लोचन ललित लोल लीला के निकेत हैं। सौंहन को सोच न सकोच लोकालोकानि को, देत सुख, ताको सखी दुनो दुख देत हैं । केशोदास कान्हर कनेर ही के करक से, वाह्य रंग राते अंग, अंतस में सेत हैं। देखि देखि हरि हरनता हरिननी, दखत ही देखो नहीं हियो हरिलत है ॥६॥ शब्दार्थ-लोकलीक = लोकमर्यादा । लीलत हैं - छोडा लेते हैं, नष्ट कर देते हैं। सौह = शपथ । लोकालोक सांसारिक बदनामी । कोरक= फूल । बाह्य - बाहर से, ऊपरी ओर । अंतस =भीतर। सेत- सफेद, कोरे (अनुराग रहित )। हरनता = हरण करने की शक्ति, मनोहरता। देखतही लेत है देखो क्या ये कृष्ण दखतेही देखते हृदय नहीं हर लेते? (अवश्य हर लेते हैं) नोट-मालिक के देखते हुए कोई चोर बस्तु नहीं हर सकता, पर कृष्ण ऐसा ही करते हैं इसी से दूना दुःख देते हैं। कनेर के फूल का रंग ऊपर लाल और भीतर कुछ सफेद होता है, तात्पर्य यह कि बाहर भीतर एक से नहीं हैं ( कपटी हैं )। भावार्थ सुगम ही है । अलंकारता इसमें है कि इसके पढ़ने में ओठ से प्रांट नहीं लगता।