पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/४१२

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सोरहवाँ प्रभाव ४०६ भावार्थ-(वर्षा श्री गई है, कामोद्दीपन होकर बिरह दुःख होना चाहिये था, परंतु ) उसके लिये भोर, चक्रवाक और दादुरों के कोलाहल शब्द क्या हैं अर्थातू कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि प्रेस से प्रभावित होकर और पुत्र पर प्रेम जता कर पुत्र की चंचल लीलाओं पर मुग्ध बनी वह लाडिली इधर उधर डोला किरा करती है (पुत्र का मुख पति की अनुहारि का देख कर प्रसन्न रहती है) (सूचना)-यदि कोई कहै कि वर्षा में चक्रवाक का वर्णन अयोग्य है, तो 'कोक कीक' का अर्थ 'कोक शास्त्र का पठन पाठन' अर्थ ले सकते हैं। (नोट)-इस दोहे के पूर्वाई में केवल 'क' और उत्तरार्द्ध में केवल 'ल' का प्रयोग है। इसी नियम के कारण दूसरे और चौथे चरण का सुकान्त नहीं मिलता। (चुतुरांश एकाक्षरी) छंद के प्रति चरण में एक एक अक्षर प्रधान है। मूल-गोग गी गो गोग गज जीजै जीजी जोहि । रूरे हरे रेरु ररि हाहा हु होहि ॥४२॥ शब्दार्थ-गोग- गोविंद (गोचिंद' और 'गोग' पर्याय वाची शब्द हैं)। गोगै= गोविंद को।गीकहो । गो गाय, गऊ । गोग= (गो+ग) जल गत, पानी में डूबते हुए । गज हाथी। जीज जी सकते हो। जीजी = जीव के जीव, प्राण के प्राण (ईश्वर ) जोहि- देखकर । रूरे रूरे अच्छे से अच्छे, भले से भले । रेरुटेरो, पुकारो। ररि रट रट कर, बार बार । हाहा = बिनती हूहू = वह गंधर्व जो देवल मुनि को शाप से प्राह हुश्रा था । होहि है।