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तीसरा प्रभाव


शुभ्र विरूप त्रिलोचन सों मति केशवदास के ध्यान अरी है। चंदत देव अदेव सबै मुनि गोत्रसुता अरधंग धरी है ॥ १० ॥ शब्दार्थ-यातमभूत = कामदेव । विरूप = विशेष सुंदर रूप । अरी है-अड़ी है । गोत्रसुता पार्वती। भावार्थ ---स्पष्ट और सरल है। [विवेचन --सिद्ध शिरोमणि और शंकर शब्द कहके साधु समूह भरी सृष्टि 'संहारत' हैं, ऐसा कहना न चाहिये था । इन शब्दों के साथ ' पालत' वा 'रक्षत' शब्द का प्रयोग उभित था। संहार करने के लिये रुद्र, उग्न, भैरव इत्यादि शब्द चाहिये, 'शंकर' तो कल्याणद को कहते हैं। प्रातम भूत ( आमभू, काम ) का अर्थ 'युन' भी हता है, अतः यहां इस शब्द का प्रयश अनुचित है, 'मार' वा 'विषमवाण' इत्यादि शब्द होना चाहिये था। त्रिलोचन के लिये विरूप शब्द अनुचित अंधता है । 'अरी' का अर्थ शत्रु भी होता है, अतः अनुचित है । 'गोत्र सुता' (पर्वत की पुत्री) का अर्थ सगोत्रवाली कन्या भी भासता है, अतः इसका भी प्रयोग अनुचित जंचता है, गिरीशसुता होता तो अच्छा होता। इसी प्रकार अनुपयुक्त शब्दों के प्रयोग से ' बधिर नामक दोष होता है। 'बधिर' इस कारण कहा कि इस प्रकार के प्रयोगों से जान पड़ता है कि कहनेवाले ने शिष्ट और शिक्षित समाज में रहकर शब्दों का यथोचित प्रयोग तक नहीं सुना। तैौलत तुल्य रहै न ज्यों कनक तुला तिल आधु । त्याही छंदो भंग को सुनि न सकै श्रुति साधु ॥११॥ मूल-