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तीसरा प्रभाव


पर विचार करने से इस छन्द के प्रथम चरण में पांच और छठा गण, तथा दूसरे चरण में तीसरा और सांतवां गण "भग न होकर 'रगण हैं। अतः छन्द का नियम भंग होता है। शुमः प्रथम चरण में शब्द 'लोकति छूटी' = 'लोक अनि छूटी और चौथे चरण में 'करत.र उबारक' = 'करतार और बारक' अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। ऐसा करना भी छन्द नियम को भंग करने के बराबर है। अतः इस छंद में छन्दो- भंग दोष है। नोट-केशव ने इसे दोष माना तो, पर हिन्दी साहित्य संसार में मुशकिल ही से कोई मत्तगयंद सवैया ऐसा मिलेगा जिसमें यह दोष न हो । हां अलबत्ते अन्य वर्णिक छन्द जैसे मालिनी, मंदाक्रान्त, द्रुतविलंबित, शार्दूल विक्रीड़ित इत्यादि में यह दोष बहुत खटकता है। मत्तगयंद सवैया अपने शुद्धरूप में देखिये भासत गंग न तो सम आन कहूं जग में मम पाप हरैया । बैठि रहे मनु देव सबै तजि तोपर तारन भारहिं मैया ।। या कलि में इक तूहि सदा जनकी भवपार लगावति नैया । है तुअरी ! जग केहरि सी अघ मत्तगयंदर्हि नास करैया ।। ४-[अलंकारहीन ना दोष का उदाहरण ] मूल-तोरि वनी टकटोरि कपोलनि जोरि रहे कर त्यों न रहौंगी। परन खवाय सुधाधर पान के पाय गहे तस हौं न गहोंगी। केशव चूक सवै स हेही मुख चूमि चले यह पै न सहाँगी । कै मुख चूमन है फिरि मोहिं कि आपनि घायलों जायकहौंगी।।१३।। ३