पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/४४३

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सोरहवा प्रभाष ४४१ (धनुषबंध) मूल-परम धरम हरि हेरहीं केशव सुनै पुरान । मन मन जानै नार द्वै जिय यश सुनत न पान ॥८॥ (पर्वतबंध) मल-या मय रागे सुतौ हित चोरटी काम मनोहर है अभया । मीत अमीतनि को दुख देत दयाल कहावत हीन दया । सत्य कहाँ कहा झूठ में पावत देखो बेई जिन रेखी कया । या मय जे तुम मीत सबै स सबै सतभी मत गेय मया ॥१॥ (नोट)-इसौ सबैया से प्रबंध भी बन सकता है। (सबतोमुख) मूल-काम अरै तन लाज मरै कब मानि लिय रति गान गहै रुख । बाम बरै गन साज करै अब कानि किये पति आन दहै दुख ।। धाम धेरै धन राज हरै तब बानि बिये मति दान लहै दुख । राम रै मन काज सरै सब हानि हिये अति श्रान कहै मुखा८२॥ (हारबंध) मूल--हरि हरि हरि रि दौरि दुरि फिरि फिरि करि करि भरि । मरि मरि जरि गरि हारि परि परिहरि अरि तरि तारि ॥३॥ (नोट)-इससे कमलबंध भी बन सकता है। (डमरू बंध) मूल-नर सरब श्री सदा तन मन सरस सुर बास करन । नर कसि बर सु सकल सुख दुख हानव जनि मरन ।