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प्रिया-प्रकाश


भूल---जो कहुँ आदि कविन के, अगण होय बड़भाग। ताते द्विगण बिचार चित कीन्हों वासुकि नाग ॥२७॥ भावार्थ हे बड़भाग! यदि कहीं अावश्कता यश भगण रखना ही पड़े, तो उसके दोष को निवारण करने के वास्ते वासुकि नाग ने दिशण बिचार की प्रथा चलाई। वह प्रथा यों हैं। मूल-मित्र तें जु होय भिन्न बाढै बहु रिद्धि सिद्धि, मित्र ते जु दास त्रास युद्ध तें न जानिये । मित्र तें उदास गन होत गेात दु ख देत, मित्र ते जु शत्रु होय मित्रबंधु हानिये। दास ते जु भित्रगण काज सिद्धि केशोदास, दास ते जु दास बस जीव सब मानिये । दास ते उदास होत धन नास आस पास, दास तेंजु शत्रु मित्र शत्रु सो बखानिये ॥२८॥ जानिये उदास ते जु मित्रगन तुच्छ फल, प्रगट उदास ते जु दास प्रभुताइये। होय जो उदास तें उदास तो न फलाफल, जो उदास ही तें शत्रु तो न सुख पाइये । शत्रु ते जु मित्रगन ताहि सो अफल गन, शत्रु तें जु, दास आशु बनित! नसाइये । शत्रु तें उदास कुलनाश होय केशोदास, शन्नु से 'जु शत्रु नाश नायक को गाइये ॥२६॥