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तीसरा प्रभाव


मूल-दीरघ इ लघु करि पढ़े, सुख हो मुख जेहि टौर । सोऊ लघु करि लेखिये, केशव कवि सिरमौर ॥३४॥ भावार्थ-दीर्घ अक्षर को जहां लघु करके पढ़ने से मुख को सुख हो, वहां उस दीर्घ को भी लधु ही समझना चाहिये । केशव कहते हैं, हे कवि शिरोमणि यह बात याद रखिये। जैले:- मूल -पहले सुखदै सबही को सखी हरिही हितकै जुहरी मतिमीठी। दूजे लै जीवनमूरि अकूर गयो अंग अंग लगाय अँगीठी ॥ श्रव धौ कहि कारन केशव थे उठिधाये हैं ऊधव झूठी बसीठी । माथुर लोगन के सँगकी यह बैठक तोहिं अौं न उबीठी॥३५॥ शब्दार्थ-मतिमीठी-अच्छी बुद्धि । उबीडी-अरुचिकर हुई। भावार्थ -सरल ही है। (विवेचन)-यह उपजाति सधैया है। इसके पहले और तीसरे चरणों में २५ अक्षर हैं तथा दूसरे और चौथे चरणों में केवल २३ हैं । इसके पहले चरण का 'को' दूसरे के जे, लै, अतर का अ, और तीसरे चरण के ये, हैं और ठी, अक्षर गुरु लिखे हैं, पर इनका उच्चारण आसानी से लधु की तरह होता है (और पिंगल के अनुसार होना भी ऐसा ही चाहिये) अतः ये अक्षर लघु ही माने जायेंगे। मूल-~संयोगी की आदि को कहुँ गुरु बरण बिचारि । केशवदास प्रकाश बल, लघु करि ताहि निहारि ॥३६॥ भावार्थ-संयुक्ताक्षर के पहले वाले वर्ण को गुरु बर्ण मानने का विचार छंद नम्बर ३३ में लिख श्राये है। अब उसका अपवाद लिखते हैं कि कही कहीं ज्ञानबल से उसे भी लघु ही देखना चाहिये।