(विवेचन)-इस छंद में 'शत्रु संहारों पर 'जीवन मारो' विरोधी
भाव हैं। पहले 'शत्रु संहार' कह कर फिर 'कोउ न रिपु तेरो'
कहना विरोध है। 'अगाध धनी' कहना और 'कछु' माँगना
विरोध है। उससे तो बहुत सा माँगना चाहिये । यही व्यर्थ
दोष है।
५-(अपार्थ दोष)
मूल--अर्थ न जाको समुझिये, ताहि अपारथ जान ।
मतवारो उनमत शिशु, के से बचन बखान ॥४४॥
भावार्थ-जिस छंद का कोई सुसंगत अर्थ न निकले, जैसे-
मूल-पिये लेल नर सिंधु कह है अति सज्वर देह ।
ऐरावत हरि भावतो, देख्यो गरजत मेह ॥ ४५ ॥
(विवेचन)---
इस दोहे का कोई सुसंगत अर्थ समझ में नहीं आता
केवल उन्मत्त वा नादान बनने की सी बड जान पड़ती है।
यही अपार्थ दोष कहलाता है।
६-(क्रमहीन दोष)
मूल-क्रमही गुणन बखानि के गुणी गर्ने क्रमहीन !
सो कहिये क्रमहीन जग, केशवदास प्रवीन ॥४६॥
भावार्थ कुछ व्यक्तियों के गुणों का क्रमसे बन किया जाथ,
धुनः गुणियों का नाम लेते समय क्रम भंग हो जाय,
मूल-~-जगकी रचना कहि कौन करी ।
किहि राखन की जिथ पैज बरी ॥
पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/५६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४३
तीसरा प्रभाव