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तीसरा प्रभाव


(विवेचन)-इस छंद में 'शत्रु संहारों पर 'जीवन मारो' विरोधी भाव हैं। पहले 'शत्रु संहार' कह कर फिर 'कोउ न रिपु तेरो' कहना विरोध है। 'अगाध धनी' कहना और 'कछु' माँगना विरोध है। उससे तो बहुत सा माँगना चाहिये । यही व्यर्थ दोष है। ५-(अपार्थ दोष) मूल--अर्थ न जाको समुझिये, ताहि अपारथ जान । मतवारो उनमत शिशु, के से बचन बखान ॥४४॥ भावार्थ-जिस छंद का कोई सुसंगत अर्थ न निकले, जैसे- मूल-पिये लेल नर सिंधु कह है अति सज्वर देह । ऐरावत हरि भावतो, देख्यो गरजत मेह ॥ ४५ ॥ (विवेचन)--- इस दोहे का कोई सुसंगत अर्थ समझ में नहीं आता केवल उन्मत्त वा नादान बनने की सी बड जान पड़ती है। यही अपार्थ दोष कहलाता है। ६-(क्रमहीन दोष) मूल-क्रमही गुणन बखानि के गुणी गर्ने क्रमहीन ! सो कहिये क्रमहीन जग, केशवदास प्रवीन ॥४६॥ भावार्थ कुछ व्यक्तियों के गुणों का क्रमसे बन किया जाथ, धुनः गुणियों का नाम लेते समय क्रम भंग हो जाय, मूल-~-जगकी रचना कहि कौन करी । किहि राखन की जिथ पैज बरी ॥