शब्दार्थ-बैरागर खानि । धवल छैल । चामी जो अपने
धर्मपर न चलै, पापी । बामदेव महादेव ।
भावार्थ-सरल हो है।
(विवेचन)-इस छंद में उल्लेख अलंकार द्वारा राजा इन्जीत
को खानि, सागर, बैल, गज, सिंह, महादेव, काम, थे।
कलस, दीपक और कल्पवृक्ष कहा गया है। यह भी कवि
नियम है।
मूल --बुवभ कंध स्वर मेघ सम, भुज धुज अहि परमान ।
उर सम शिला कपाट अँग, और तियान समान ॥२०॥
(विवेचन)- पुरुषों के कंधा वृषभकंध सम, स्वर मेघर पर
( वा सागर, सिंह और दुंदुभीस्वर ) सम, भुज ध्वजा बा
सर्प सम, उर शिला या कपाट सम कहना कवि नियम है,
और अन्य अंगों का स्त्रियों के अंगों के समान ही बर्णन हता
है। यह भी कविनियम है-जैसे:-
मूल--मेघ ज्यों गंभीर वाणी सुनत सखा शिवीन,
सुख, अरि हृदय जबासे ज्यों जरत
जाके भुजदड भुवलोक के अभय ध्वज,
देखि देखि दुर्जन भुजंग ज्यों डरत हैं।
तोरिवे को गढ़तरु होत हैं शिला सरूप,
राखिबे को द्वारन किंवारे ज्यों अरत हैं।
भूतल को इन्द्रः इन्द्रजीत राजै युग युग,
केशोदास जाके राज राज सो करत है ॥ २१ ॥
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चौथा प्रभाव