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प्रिया-प्रकाश


शब्दार्थ-कुवलय नीलकमल ! नलिन-नीली कुमुदनी । अनिल वायु । बाल =केश । सैवाल -सिवार । मूल-कंठ दुकूल सु ओर दुई उर थों उरमै बल के बलदाई। केशव सूरज अंशुन मंडि मनो जमुना जल धार |साई । शंकरशैल शिलातलमध्य किधौं शुक की अवली फिरि आई । नारद बुद्धि विशारद हीय किधौं तुलसीदल माल सोहाई ॥ शब्दार्थ-दुकूल = कपड़ा। उरमै लटकता है। बल-बदेवजी। अंशु-किरण । मंडि-सुशोभित करके। शंकररोल - कैलाश । भावार्थ-जनों को बल देने वाले बलदेव जी के कंठ में पड़े हुए दुपट्टे के दोनों छोर हृदय पर इस तरह लटकते हैं, मानो सूर्य ने अपनी किरणों से युक्त करके जमुना जल की धारा को वहीं से उतारा है। अथवा कैलाश की चटान पर शुकों की पंक्ति बैठी है, या बुद्धिमान नारद के हृदय पर तुलसीदल की माला है। नोट ---शुक और तुलसीदल को भी नील माना है। नोट २-केशव ने हरित रंग की वस्तुएँ नहीं गनाई। हरित को रंगही नहीं माना। हरित को नील में सम्मिलित कर लिया है। संस्कृत में भी ऐसा ही माना है । कारण मुझे ज्ञात नहीं। ७-(मिश्रित वर्णन) (क)--श्वेत और कृष्ण) (नोट)-मिश्रित कहने से यह तात्पर्य है कि कुछ शब्द ऐसे हैं जिनके दो दो अर्थ हैं । भिन्न अर्थ लेने से भिन्न रंग का शान होगा, जैसे मूल--सिंह कृष्ण हरि शब्द गनि, चंद विष्णु बिधु देख । अभ्रक धातु अकाश वनि पाल स्याम सित लेख ॥३८॥