पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१०५

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-७७ कवित्त रस कैसो है बिधान विधिना को न जनाय कछू, जाय मधुपुरी फिर कब इत आइहैं। नाग सिर नाचि हैं उठाइ धरा धर कर दावानल पान करि हमर्हि बचाइहैं। गाइन चराइहैं कदम्ब चढ़ि प्रेमघन, बाँसुरी बजाइहैं औ बरसाइहैं॥ जाके भुजबल बसो रह्यो वैरिहीन वृज, सोई वृजराज आज वृज तजि जाइहैं । दूध दधि माखन को भार कितनेहीं धरे, सिर पर लठा कितने ही लिये निजकर । वृज वनिता की अवली अनेक विलखति, बकति परस्पर कहत धरौं बंसीधर ॥ प्रेमघन स्याम के वियोग की व्यथा की घटा, घुमड़ि रही सी वृज मंडल पै घोरतर । बाल वृद्ध जुआ नर नारिन की एक संग, भारी भीर जात है जुरति नन्द द्वार पर॥ श्रीकृष्ण सम्मेलन नामक तृतीय सर्ग।