पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११४

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वह रहै सदा तेरेहि संग।
पै करै न रस को रंग भंग॥१२४॥
हम ताकी छबि ही लखि अघाय।
जै हैं जब वह मृदु मुसकुराय ॥१२५॥
दै है कोउ अटपट बोलि बैन।
करि सरस रसीले नैन सैन॥१२६॥
कबहूँ कुंजन मुरली बजाय।
दैहै तो कानन सुधा प्याय॥१२७॥
हँस कही सुनैना मधुर बानि।
तुम कोऊ ताहि नहिं सकी जानि॥१२८॥
वह लँगर निठुर अतिसय प्रवीन।
सब कहँ बस विनहि प्रयास कीन॥१२९॥
काहू मैं वाको नाहिं प्रेम।
नहिं कहूँ निबाहै नेह नेम॥१३०॥
जासौ मिलि जैहै कहूँ आय।
मुसक्याय मूढ़ दैहै बनाय॥१३१॥
कहि है तू ही मम प्रिया प्रान।
है सबहिं भाँति सब सुख निधान॥१३२॥
बिन तेरे देखे तनिक चैन।
नहिं लहूँ कहूँ कहुँ सत्य वैन॥१३३॥
तू दया कबहुँ मो पै दिखाय।
निरदई अधिक जनि अब सताय॥१३४॥
वृज मैं सुमुखी सोरह हजार।
मैं भूलि सबै तुहि चहनहार॥१३५॥
ये बातें तौ सूधे सुभाय।
कहि देय सबन बौरी बनाय॥१३६॥
पै नेकहु निरखि असावधान।
बहु करै हानि बनि पुनि अजान॥१३७॥