पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२७२ पर। पाये। तिहि दिन तें भारत मैं फैल्यो असन्तोष अस। छिन्न भिन्न है यवन राज विनसन लाग्यो बस ॥ वेराजी सी मची रही बहु दिवस यहाँ पर। बन्यो निपट छवि हीन दीन यह देस निरन्तर ॥ तऊ बड़ाई याकी रही दिगन्तन छाई। धन लालच यूरोपियन गगन हूँ गहि ल्याई ।। चले सबै लै लै जहाज सागर जल नापत । अगम सिन्धु मैं बिन जाने मग थरथर काँपत॥ मरे कोऊ पहुँच्यो कोऊ पाताल देस भारत हेरत पायो नूतन जगत सविस्तर। हरषे यदपि न पै लालच भारत की छोड़ी। चले इतै फिरि फिरि जहाज पतवारहिं मोड़ी। भूले भटके कोऊ कई टापू कोऊ रुके तऊ नहिं सहि सौ सौ साँसत इत आये। प्रथम फिरंगी पुनि पहुँचे नर बलन्देज इत। आये पुनि अँगरेज सकल विद्या गुन मण्डित॥ फरासीस बासी आये फिरि तौ उठि धाये। सब यूरप बासी भारत हित अति अकुलाये॥ सबहिं व्याज व्यापार, चित्त पै राज करन पर॥ सबहिं सबन सों लाग ईरषा, द्वेष परस्पर॥ लरे देस बासिन सों और परस्पर ये सब। कियो भूमि अधिकार कछू जॅह जो पायो जब। रह्यो नहीं पै राजभोग औरन के भागन। निज इच्छा अनुसार ईस दीन्यो अंगरेजन 'ईस्ट इण्डिया कम्पिनी' कियो राज काज इत। कियो समित उत्पात होत जे रहे इहाँ नित। उचित प्रबन्ध अनेक प्रजा हित वाने कीन्यो। आरत भारत प्रजा जियन कछु ढाड़सु दीन्यो।