पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- २८६ - कै सुछन्द व्यापार जोग नहिँ भूमी भारत। जो यहि दियो बनाय इते दिन मैं यो आरत॥ सूछम भेद आप ऊपर प्रगटावन । यह अति X x X स्वारथ रत अन्य दीप वासी व्यापारी। के हित आयो देन सत्य सिच्छा यह भारी॥ जो ढोवत धन अन्न यहाँ सों है अति निर्दय। नहिँ राखत याके मरिबे जीबे को कछु भय॥ उद्यम लेस न रहन देत इत भूलिं एकहू। बची खुची जो कारीगरी न ताहि नेकहू॥ पैठन देत देस अपने मैं करि बहु छल बल। अपनी कारीगरी सकेलत इत न लेत कल॥ या विधि जिन निःसत्व दियो करि हाय देस यह। जाही के परभाय चैन दिन रैन करत वह॥ नहिं जानत जब जे द्वै है भारत ही आरत। याके आश्रित रूप तुरत हूँ हैं वे गारत॥ शिल्प और विज्ञान मिलित उद्यम सब उनके। सारथ होत अन्न धन भारत ही के चुनके। सो जब भारत आपहि पेट पीर सों मरिहै। तब उनके कर कहौ काढ़ि कौड़ी को धरिहै। अथवा बीत्यो तुमहिं राज राजत इतने दिन। भारत मैं हे राज राज रानी! विवाद बिन॥ कियो सबै विधि तुम उन्नति याकी बिन संसय। दै विद्या, सुख सामग्री, हरि के दुष्टन भय॥ न्याय राज थाप्यो, परजन स्वच्छन्द बनायो। सिच्छित जन अरु धनिकन के मन जो अति भायो। रामराज सम राज तिहारो जिन कहँ दीसत। दै दै धन्यवाद वे तुम कहँ रोज असीसत ॥