पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३२६

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२९७ जाके सुभ अधिकार बीच अधिकार परम हित। पाय प्रजा कृतकृत्य भई अनुमानत प्रमुदित ।। धन्य मनुज मण्डल मण्डल मनि मुकुट मनोहर। महिपति मेकडानल महात्मा महा मान्यवर! धन्यवाद किहि भाँति देहिँ तुम कहँ सुखरासी। हम सब पच्छिम उत्तर बासी अवध निवासी॥ सहजहिँ सोचत समझि परत अतिसय जो दुस्तर। तव उपकार पहार भार गुरु तर गुनि सिर पर। है ठानत हठ यदपि कहे बिन नहिँ मन मानत। पै वानी चुपचाप रहत सकुचात बखानत॥ थरथर काँपत रसना बसना अपनी जानी। सरन दसन के जात बात की बात भुलानी। डरत डरत कर गहत लेखनी जो साहस कर। तौ मसि मैं डूबत वह निकरन चहत न सक भर॥ सौ सौ जतन निकारहूँ कारो मुख नीचे। कीनेहीं रहि जात चलत नहिँ बल करि खींचे। खींचि खींचि हू चलत चलाये चिरचिरान मिसि। देत दुहाई मनहुँ पत्र ऊपर सिर घिसि घिसि ।। तब केवल मनहीं कछु अनुभव करत हमारे। को तुम? कैसे, काज कौंन कीने तुम प्यारे॥ आनन्द उर न अमात गात भरि निकरत बाहर। हर्षित है रोमावलि उठि उठि सोचत सादर ।। सब मिलि सौ सौ मुखनि सहस सहसन रसननि सों। लाख लाख अभिलाखन कोटि कोटि जतननि सों॥ अरब खरब बरु पदुम बरखहु जु पै निरन्तर। नील संख संख्यकहु देहिँ जो तुम कहँ प्रभुवर ॥ धन्यवाद तौ हूँ तेरे हित लागत थोरे। यह गुनिक वेऊ नत कै सन्मान निहोरे॥