पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३२७

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• २९८ - मनहुँ निवेदन करत रावरी सेवा माहीं। धन्यवाद तुम कहँ देबे की समरथ नाहीं॥ पै हाँ, है हमरी संख्या जितनी हे प्रभुवर। तितने वत्सर के जुग लौं या भारत भू पर॥ रिनी आर्य सन्तान तिहारे निश्चय रहिहैं। तेरी जसु गुन गाथा सादर सब दिन कहिहैं। जे कृतज्ञ स्वाभाविक सब दिन के ऐ प्यारे। भला भूलिहैं कैसे वे उपकार तिहारे॥ सुनहु ! सहस बरसन सों हम सब भारतवासी। रहे निरन्तर सहतहि दुसह दुखन की रासी॥ यवन राज अन्याय अनोखिन की सुधि आवत। अजहूँ लौं हम भारतीन को हिय हहरावत ॥ बच्यो कण्ठगत प्रान होय जाकर सन भारत। लहि अँगरेजी राज फेरि सम्हरत सो आरत॥ पुनि यह नई नई उन्नति अब करिबे लाग्यो। बहु दुख तजि पुनि निज जीवन आसा अनुराग्यो। परिवर्तन निसि दिवस तुल्य है गयो अपूरब। पूरबहीं सो पूरब न्याय दिवाकर को जब ॥ फैल्यो सुभग प्रकास स्वच्छ स्वच्छन्दता चमकि। विनसी अत्याचार निसा भय भरी सहज थकि निखस्यो नीति प्रभात अविद्या तिमिर दुरायो। सिच्छा दच्छिन अनिल प्रबाह प्रबोध करायो॥ जगो जगत उद्योग फेरि भय आलस त्यागी। प्रजा बिहँग अवली प्रबन्ध जस गावन लागी॥ चल्यो पथिक व्यापार स्वत्व पथ परयो लखाई। लुके उलूक लुटेरे भजे चोर अन्याई॥ विकसो विद्या पंकज पुञ्ज सरोवर देसन। राजभक्ति मकरन्द सु पूरित ज्ञान परागन ॥ ॥