पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—३१६—

ख़बरदार, ग़र किसी तरह याँ घुस आयेगी।
बिला तरद्‌दुद काम व अपना कर जायेगी॥
सुनि वाके सब प्रेमीगन इक सँग अकुलाये।
याकी राह रोकिबे के हित हैं उठि धाये॥
जातैं यदपि प्रवेस लेसहू मैं कठिनाई।
कोरिन हैं अवसेस परीं जो नहिँ कहि जाई॥
पै हमरो वह काज, करहिँगे हम तिहि कोउ बिधि।
दियो आपने अवसि सकेलि हमैं दुर्लभ निधि॥
जिहि बल हम मैं सक्ति काज करिबे की आई।
जिहि बल हम करि सकत दूरि अब सब कठिनाई॥
जिहि तैं दिन दिन दूनी उन्नति अवसि हमारी।
है है निश्चय नाथ! सकल दुख के दल टारी॥
करि न सकी जो काज आज लौँ किञ्चित कोऊ।
बहुत कियो तिहि आप हमैं हित कम नहिँ सोऊ॥
निज उज्ज्वल जस अटल आप थाप्यो या थल पर।
तासु प्रसाद सरूप दियो औरनहुँ जसी कर॥
जिनकी सेवा सफल भई तुव न्याय पाइ कै।
कनक बनत ज्योँ लोहा पारस पास जाइ कै॥
धन्य कहत सब तिनहिँ सराहति उनके काजहिँ।
धन्य धन्य कहि इक सुर भारत वासी गाजहिँ॥
कहत सबै कोउ धन्यं! २ साँची हितकारिनि।
कासी की तू सभा अरी नागरी प्रचारिनि!
धन्य दिवस शुभ घरी जन्म तू जब उत लीन्यो!
सिसुताही मैं सुभग नाम निज सारथ कीन्यो॥
धन्य! सभ्य संस्थापक सकल सहायक तेरे।
धन्य परिस्रम प्रेम अटल उछाह उन केरे॥
अहो मदन मोहन मालवी धन्य तुम निज वर!
जीवन कीन्यो सुफल जननि तुम भारत भू पर॥