पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३६४

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हरिगीत


धनि दिवस वह जब आप की माता महारानी भईं।
इहि देस की पालिनि सहज सब भूलि अपराधहिं गईं॥
सुत जननि लौ हरखाय इहि निज छत्र छाया तर लईं।
निज दया बिस्तारत भईं आरति हरनि मैं मन दईं॥

रोला


धन्य ईस्वी सन अट्ठारह सौ अट्ठावन।
प्रथम नवम्बर दिवस, सितासित भेद मिटावन॥
अभय दान जब पाय प्रजा भारत हरषानी।
अरु लहि उनसी दयावती माता महारानी॥
राज प्रतिज्ञा सहित सान्ति थापन विज्ञापन।
मैं अधिकार अधिक निज पुष्ट विचार मुदित मन॥
अति उन्नति आसा उर धरि बिन मोल बिकानी।
श्रीमति हाथनि, मानि उन्हें निज साँची रानी॥
बहुत दिनन सों दुखी रहे जो भारत बासी।
प्रजा दया की भूखी, न्याय नीर की प्यासी॥
पसु समान बिन ज्ञान मान बन रही भरी डर।
फेरि तिन्हैं नर कियो सहज लघु दिवस अनन्तर॥
दियो दान विद्या अरु मान प्रजान यथोचित।
अभय कियो सुत सरिस साजि सुख साज नवल नित॥
श्रीमति भई राज राजेसुरि जबै हमारी।
गईं सुतंत्र नाम सों हम सब प्रजा पुकारी॥
यह नहिं न्यून हमारे हित गुनि हिय हरषानी।
लगीं असीसन उन्हें जोरि ईसहि जुग पानी॥
जिन असीस परभाय जसन जुबिली दिन आयो।
पुनि इन भक्त प्रजन को मन औरो हरषायो॥