पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—३६४—

वर्गाश्रम गुण कर्म्म स्वभाव बिरुद्ध चाल चलने से।
बने दीन तुम धर्म्म सनातन की सम्पति टलने से॥
मिथ्या डम्बर दम्भ, द्रोह पाखण्ड फूट फैलाते।
अपने मुख से अपने को सब से उत्कृष्ट बताते॥
धर्म्म तत्व से हुए शून्य तुम बिना बिचार बिचारे।
फन्दे में फँस अल्पज्ञों के दाँव सब अपने हारे॥
क्षमा, सत्य, धृति, दया, शौच, अस्तेय, अहिंसा, त्यागी।
शम, दम, तितिक्षादि, यम, नियम, विहीन विषय अनुरागी।
धर्म्म ओट सुख, स्वार्थ साधने की है चाल लखाती।
कुत्सित लाभ लोभ के कारण जो नहिं छोड़ी जाती॥
बिन बिवेक बैराग्य ज्ञान तप उपासना के भाई।
सदाचार उपकार बिना कब किसने सद्‌गति पाई॥
प्रचलित हाय अन्ध परिपाटी पर तुम चलते जाते।
आर्य्य वंश को लज्जित करते कुछ भी नहीं लजाते॥
है मिथ्या विश्वास तुमारे मन में इतना छाया।
ढूहों और क़बरों पर भी जा मस्तक हाय नवाया।
पञ्च देव से पाँच पीर जिनसे हैं पूजे जाते।
घृणित अर्थवाची भी हिन्दू हैं वे आज कहाते॥
परब्रह्म सों विमुख सदा तुम सिद्धि कहाँ से पाओ।
नित्य नये दुख सहने पर भी तनिक नहीं पछताओ॥
स्वार्थ रहित धरर्मोपदेष्टा बिरले कहीं लखाते।
धर्म्म तत्व ज्ञानी सच्चे गुरु कोई ढूँढ़ कर पाते॥
नहिं विचार का धर्म्म तत्व जो अज्ञों को बतलाते।
ग्रहण त्याग सत असत रीति कुछ कभी नहीं समझाते॥
खण्डन मण्डन की बातैं करते सब सुनी सुनाई।
गाली देकर हाय बनाते बैरी अपने भाई॥
नित्य नवीन धर्म्म पथ पर रचकर ठग तुमको बहकाते।
स्वर्ण छोड़ तुम राख राशि लेकर प्रसन्न दिखलाते॥