पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३९२

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छिन्न भिन्न समुदाय सनातन नित्य इसी से होता।
प्रबल विरोधी दल हो उसके शक्ति पुञ्ज को खोता॥
धर्म्म आग्रह सब है केवल करने ही को झगड़ा।
नहिं तो सत्य धर्म्म प्रेमी से कैसा किससे रगड़ा॥
सबी धर्म्म के वही सत्य सिद्धान्तन और विचारो।
है उपासना भेद न उसके अर्थ वैर विस्तारो॥
जगदीश्वर आराध्य देवता सब का है वही एकी।
मूल धर्म्म का ग्रन्थ वेद सब का जब एक विवेकी॥
समझो तब कैसा विरोध आपस का सब ने ठाना।
बैर फूट का फल आद्यापि नहीं तुम ने क्या जाना॥
बीती जो उसको भूलो सँभलो अब तो आगे से।
मिलो परस्पर सब भाई बँध एक प्रेम धागे से॥
आर्य्य वंश को करो, एक, अब द्वैत भेद बिनसाओ।
मन बच कर्म्म एक हो वेद बिदित आदर्श दिखाओ॥
बैठो सब थक एक ध्याय सर्वेश एक अविनाशी।
एक बिचार करो थिर मिलकर जग आतंक प्रकाशी॥
मिथ्या डम्बर छोड़ धर्म्म का सच्चा तत्व बिचारो।
चारों वेद कथित चारों युग प्रचलित प्रथा प्रचारो॥
चारों वर्ण आश्रम चारों भिन्न धर्म के भागी।
निज २ धर्म्माचरण यथा बिधि करो कपट छल त्यागी॥
चारों बर्ग अवस्था चारों के अनुसार सराहे।
आवश्यक साधन सब का है बिधिवत नियम निबाहे॥
नहीं एक से काम जगत का चलता कभी लखाता।
जगत प्रबन्ध ठीक रखने को धर्म्म बेद बतलाता॥
लोक और परलोक उभय सँग जब साधोगे भाई।
तब यथार्थ सुख पाओगे खोकर यह सब कठिनाई॥
सीखो नई पुरानी दोनों प्रकार की विद्यायें।
दोनों प्रकार के विज्ञान सिखाओ रच शालायें।