पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४७२

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जीतिय अति परबल रिपु छल बल,
बलि छलि सिच्छा जगत प्रचारी॥
विजित सरन आयो सज्जन रिपु,
सदय उचित मुख साज संवारी।
दियो पताल राज बलि सादर
जीति तिहूँपुर, आरति टारी॥
महिमावान उदार सत्रु की
मान हानि अनुचित चित धारी।
समरथ जदपि सबै विधि, पै महि
जाच्यो बलि, बनि आपु भिखारी॥
होय कृतज्ञ, पाय उपकारहिं,
सेइय निति सब वैर बिसारी।
जथा प्रेमघन प्रेम सहित प्रभु
बलि के द्वार बने प्रतिहारी॥१३३॥

श्रीरामावतार


जय जय रघुकुल कुमुद कलाधर!
राम रूप हरि आरति हारी।
केवल सदगुन पुञ्ज मनुज तन
धरि पवित्र लीला विस्तारी।
दरसायो आदरस नृपति जग
जन हित सिच्छा सुभग प्रचारी॥
पालन गुरु सासन, परजन मन
रञ्जन हित स्वारथ तजि भारी।
सह्यो कठिन दुख, थाप्यो धर्मा,
दुष्ट दल नासि दीन हितकारी॥
राजनीति के गूढ़ तत्व अनुसरि
सिखयो वर विपति विदारी।