पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४८३

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रुलाती गाली


का गुन दीजै कौन तुम्हैं गाली।
जग अपमान सहत वहु दिन जिन, जिय न ग्लानि कछु धारी॥
कियो कलंकित आर्य्य वंश तुम बनि हिन्दू व्यभिचारी।
कहलाये काले कापुरुष, दास बनि सर्वस हारी॥
पितामही भारती तुमारी तुम सो समुझि निकारी।
सात सिन्धु तरि म्लेच्छन के घर, जाय बसी करि यारी॥
श्री सम्पत्ति हरि लियो विधर्मिन जे तुमारि महतारी।
चची चातुरी शक्ति भीरता तुव तिय संग सिधारी॥
भोगे तुव भगनी वीरता, बड़ाई प्रभुता प्यारी।
फोरि फूट कुटनी के बल, बहु बार यवन दल भारी॥
धर्म प्रथा नानी मर्यादा भाभी तुव डर डारी।
वारि नारि बनि घर २ नाची, अञ्चल अलक उघारी॥
फूफी ईशभक्ति भावी तव देस प्रीति मतवारी।
बनि तजि तुमै नीच रति राची करि तिन सबन सुखारी॥
समुझ निलज्ज नपुंसक तुम कह निपट अपंग अनारी।
तुव पत्नी स्वाधीनता सरकि पर घर पाय पसारी॥
सुता सभ्यता पोती कीरति नानिति नीति दुलारी।
गई कहां नहिं जान परै कछु तजि तुव घर कर झारी॥
कुल करतूत बुरी अपनी सुनि, सांचे सांचे ढारी।
दोष प्रेमघन पैं न देहु पिय बिन कछु लहे लवारी॥१६६॥

हँसाती गाली ज्योनार


तुम जेंवहु जू जेवनार! हमारे पाहुने।
खाये से हमरे घर के तुम होवहु परम सुखार।
बड़े मुँगौरे सेव समोसे पूरौ मुख के द्वार॥
वे टिकिया पापर तुम रीझौ कैसे कौन प्रकार।