पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६५१

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अञ्जन दृग सिन्दूर सिर चोटी चारु सुहाय
ह हा ! हा होरी मैं॥
जरित जवाहिर भूषननि सुहाय
ह हा! हा होरी मैं॥
ऐसे सजि धजि चाव सों बनक विचित्र बनाय
ह हा! हा होरी मैं॥
है जुवती जुवतीन सँग फाग खेलिये आय
ह हा! हा होरी मैं॥
कसक मिटावहु खोलि हिय खेलहु अब हरखाय
ह हा! हा होरी मैं॥
फेंकहु कुंकुम कुचन पर गाल गुलाल मलाय
ह हा! हा होरी मैं॥
यों कहि बरसावन लगीं सब हरि ऊपर रंग
सुभग दिन होरी मैं॥
कविवर बद्री नाथ जू गावत पीये भंग
ह हा! हा होरी मैं॥
चित चोर सुचित ठगो री॥टेक॥

नासा मोरि नचाय नैन सर भौहैं जुगल मरो री
तानि कमान कान लगि छाड्‌यो चित पंछीहि हतो री
ताप अब मौन गहो री॰
जब सों नैन बान उर लाग्यो तब तें निडर भयो री
नहि काहू के दिशि चितवत वह रूप अभिमान भयो री
नेक दिशि वाके लखो री॰
इत कितने के जीव जात पर उत तो होति ठिठोली
जो कोउ कहत मरत यह प्रेमी तो कहैं काहू करूँ री
नाहि कछु चारो मेरो री॰