पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६६

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जाते जामैं सबै समय आनन्द मनावत।
नित निष्कपट विनोद खेल अरु कूद मचावत॥४७२॥
कष्ट एक पढ़िबे ही मैं जब मानत हो मन।
भय को भाव दिखात कछू निज सिक्षक ही सन॥४७३॥
बीति जात पढ़िबे को समय मिलत छुट्टी जब।
सीमा हरख उछाह की न रहि जात फेरि तब॥४७४॥
होत सबै बालक गन एकहि ठौर एकत्रित।
जस जहँ को अवसर चाह्यो के जित सबको चित॥४७५॥
फिर तो बस आनन्द उदधि उमगात छिनहिं महँ।
नव विनोद के नित्य नएही ठाट जमत तहँ॥४७६॥
कबहुँ स्वजन शिशु त्यों कबहूँ सेवक अरु परजन।
के बालक मिलि होत यथोचित गोल संगठन॥४७७॥
मचत कबहुं झावरि कबह तुतु लूम लूल भल।
कबहुँ गेंद खेलत कूरी कूदत कबह दल॥४७८॥
कबहुँ लच्छ बेधत अनेक भाँतिन सों सब मिलि।
कबहुँ करत जल केलि कूदि सरितन तालन हिलि॥४७९॥
बन्द राम लीला जब होति सबै बालक गन।
करत खेल आरम्भ सोई अतिसय मनरंजन॥४८०॥
राम लच्छिमन बनत कोउ हनुमान बाल गन।
जामवान अंगद सुग्रीव तथा कोउ रावन॥४८१॥
कुम्भकरन, घननाद, कोउ खर दूषन आदिक।
बनत, होत लीला सब यों क्रम सों न्यूनाधिक॥४८२॥
कभी और मैं होति, लराई मैं पै नाहीं।
होति, नित्य जामैं अनेक घायल कै जाहीं॥४८३॥
पै न कहत कोउ निज घर इत की सत्य कहानी।
सदा खेल की दुर्घटना यों रहत छिपानी॥४८४॥
कटत धान अरु दायँ जात जब फरवारन महँ।
त्यों पयाल को गाँज लगत ऊँचे २ तहँ॥४८५॥