पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/७२

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कहँ लगि कहैं न चुकिबे की यह राम कहानी।
बाल चरित्रावलि समुझत अजहूँ सुख दानी॥५४८॥
सबै समय, सब दिवस सबै दिसि सब मैं सुख सम।
सब वस्तुन मैं सचमुच अनुभव करत रहे हम॥५४९॥

समय परिवर्तन

सो सब सपने की सम्पत्ति सम अब न लखाहीं।
कहूँ कछुहू वा सांचे सुख की परछाहीं॥५५०॥
अब नहिं बरषागम मैं वैसी आंधी आवै।
नहिं घन अठवारन लौं वैसी झरी लगावें॥५५१॥
नहिं वैसो जाड़ा बसन्त नहिं ग्रीषम हूँ तस।
आवत मनहिं लुभावत हरखावत आगे कस॥५५२॥
नहिं वैसे लखि परत शस्य लहरत खेतन में।
नहिं बन मैं वह शोभा, नहिं विनोद जन मन मैं॥५५३॥
अद्भुत उलट फेर दिखरायो समय बदलि रंग।
मनहुँ देसहू वृद्ध भयो निज बृद्ध पने संग॥५५४॥
ताहू मैं या गांव की परत लखि अति दुर्गति॥
तासु निवासी जन की सब भांतिन सों अवनति॥५५५॥
अपनेहीं घर रहो जासु उन्नति को कारन।
ताही के अनुरूप कियो छबि याने धारन॥५५६॥

अवनति कारण

रह्यो एक घर जब लौं सुख समृद्धि लखाई।
उन्नति ही सब रीति निरंतर परी लखाई॥५५७॥
गयो एक सों तीन जबै घर अलग अलग बन।
ठाट बाट नित बढ़त रह्यो परिपूरित धन जन॥५५८॥
छूटेव प्रथम निवास पितामह मम को इत सों।
विवस अनेक प्रकार भार व्यापार अमित सों॥५५९॥