पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/७३

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जाकी शोभा मनभावनि अति रही सदाहीं।
जाहि लखत मन तृप्त होत ही कबहूँ नाहीं॥५७४॥
आज तहां कोऊ विधि सों नहि रमत नेक मन।
हठ बस बसत जनात कल्प के सम बीतत छन॥५७५॥
आय गई दुर्दसा अवसि या रुचिर गांव की।
दुखी निवासी सबै, छीन छबि भई ठांव की॥५७६॥
जे तजि या कहँ गये अनत वे अजह सुखी सब।
ईस कृपा उन पर वैसी ही है जैसी तब॥५७७॥
कारन याको कहा समझ मैं कछू न आवत।
बह विचार कीने पर मन यह बात बतावत॥५७८॥
जब लौं अगले लोग रहे सद्धर्म्य परायन।
न्याय नीति रत सांचे करत प्रजा परिपालन॥५७९॥
तब लौं सुख समुद्र उमड्यो इतं रहत निरन्तर।
उत्तरोत्तर उन्नति की लहरात ही लहर॥५८०॥
भये स्वार्थी जब सों पिछले जन अधिकारी।
भरे ईर्षा, द्वेष, अनीति निरत, अविचारी॥५८१॥
करन लगे जब सों अन्याय सहित धन अरजन।
भूलि धर्म, करि कलह, स्वजन परजन कहँ पेरन॥५८२॥
होन तबहिं सो लगी दीन यह दसा भयावनि।
देखे पूरब दसा लोग मन भय उपजावनि॥५८३॥
पै जब करत विचार दीठ दौराय दूर लौ।
अन्य ठौर प्रख्यात रहे जे इत वेऊ त्यों॥५८४॥
बिदित बंश के रहे बड़े जन जे बहुतेरे।
श्री समृद्धि अधिकार सहित या देशन हेरे॥५८५॥
पता चलत उनको नहिं गए विलाय कबैधों।
थोरे ही दिन बीच कुसुम खसि कुसुमाकर लौं॥५८६॥
राजा तालुकदार जिमीदार ह महाजन।
राजकुमार, सुभट औरो दूजे छत्रीगन॥५८७॥