पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९४

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सुन्यो परस्पर उनकी बहु विधि बात।
अचरज मय तिन पीछे पीछे जात॥
कह्यो एक है यह वृन्दाबन आज।
धन्य धन्य धारे सुभ सुन्दर साज॥
जों सुरपुर हूँ मैं नहि देख्यों जाय।
सो सब दृश्य अलौकिक इतै लखाय॥
मनहुँ जगत की सब श्री इतै सकेलि।
धरयो आनि विधिनै कोऊ विधि इत मेलि॥
मुसुकुराय बोल्यो दूजो गन्धर्व।
बैकुंठहुँ सो बढ्यो आज या गर्व॥
नन्दन बन त्यों इतर देवगन बाग।
सबै हीन छबि बनयो यह निज भाग॥
ये गोपी सुर बालन रहीं लजाय।
श्री समृद्धि गुन रूप गुमान बढ़ाय॥
वृन्दाबन छबि सहित सकल सुख साज।
क्यों न लहै जहँ निवसत श्री बृजराज॥
आज इति श्री जाकी है हे मित्र।
सुख समृद्धि दिन बीते जासु पवित्र॥
पुनि न होय हैं अब इत रास विलास।
राग रंग आनन्द प्रेम परिहास।
अन्तिम शोभा लखि लेबे हित आज।
आवत है इत उमड्यो देव समाज॥
यासों घूमि लख्यो हमहूँ सब ठाम।
पुनि कहँ लखि परिहैं यह छबि अभिराम॥
चलहु कहूँ छिपि देखें हम इत पास।
होन चहत आरम्भ रसीली रास॥
आइ छये नभ में घन सुन्दर स्याम।
तनि बितान सम निरख्यौ रोके घाम॥