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प्रेमघन सर्वस्व

न हो पर उसमें इसकी रङ्गत अवश्य हो, हम लोग प्रायः अपने मित्र की बातें सादर सुनते, हँसते और कुछ कुछ करते क्यों कि वे हम सब को ऐसे ही कुछ प्रिय है, कारण यह कि जहाँ आप विराजते वहाँ से उदासी उदास हो भाग जाती, और कोई सोच नहीं फटकने पाता।

हम लोगों के तीसरे मित्र श्रीमान् महाराज करुणानिधानेश्वर सिंह जी हैं जो कि एक प्रसिद्ध और परम प्रतिष्ठित क्षत्रिय राजवंश के राजकुमार हैं, जिनके पूर्वज अंग्रेजी सरकार से घोर संग्राम कर राज्य च्युत हुए थे। अब ये केवल अंग्रेजी सरकार से एक सहस्त्र मुद्रा मासिक पेन्शन पाते हैं जो इनके पास एक सप्ताह के व्यय को भी पूरा नहीं कर सकती। आपकी माता-मही इन्हें अपनी समृद्धि का अधिकारी बनाया चाहती है, परन्तु ये स्वीकार नहीं करते और कहते कि जब ईश्वर ने अपना ही राज्य ले लिया तो दूसरे का स्थानापन्न हो मुझे श्रीमान् बनना इष्ट नहीं है तो भी वहाँ से इन्हें सहस्रों मुद्रा मासिक आता जो व्यय की पूर्ति करता है। ऐसे विशाल वंश में उत्तन्न पुरुष में जो गुण होना चाहिये आप उन सबसे भली भाँति भूषित हैं। विशेषतः स्वभाव आपका परम उदार, दयामय, सरल और सरस हे। बुद्धि अत्यन्त निर्मल और तीक्ष्ण है, अंग्रेजी, संस्कृत और फारसी भाषा में तो आपने पूर्ण निपुर्णता प्राप्त की है, परन्तु और भी अनेक भाषाओं में आपकी बहुत अच्छी गति है। विद्या और कला के अनेक अंशों में आज आप अद्वितीय योग्यता रखते हैं। प्रायः सभी उत्तम वस्तुओं से आपका अनुराग है, किन्तु फिर भी आप न किसी के वश है और न किसी के बिना आप को कष्ट होता है। नगर[१] से लगभग तीन कोस की दूरी पर पवित्र सलिला श्री गंगा जी के एक प्रशस्त ऊँचे तट पर आपने एक बहुत ही विस्तृत प्रशस्त वाटिका बनाई, जो उपवन पुष्पोद्यान, ग्रीष्मालय, सुस्वादु फल, दुमावली, आदि नाना भाग में विभक्त हैं, जिसमें अनेक कूप, वापी, विश्रामालय, लताकुंज आदिक विद्यमान है। बीच-बीच में कई रम्य और उत्तमोत्तम गृह है। एक और श्री गंगा जी का विशाल बाद दूसरी ओर फाटकबाहर अन्याश्रित जनों के लिये घर बने हैं। आप प्रायः एकाकी इसी वाटिका में जहाँ जी चाहता है रहते हैं वा जिसे जी चाहता है बुलाकर आवश्यक कार्य कर लेते हैं। आपका समग्र समय जो निल्य कृत्य से बचता वह केवल प्रायः अनेक भाषाओं के दर्शन


  1. बनारस