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प्रेमघन सर्वस्व

कार वृत्ति बना देते, और उस रस को तो मूर्तिमान् कर प्रत्यक्ष दिखा देते, जिसका कि वर्णन करते हैं। कभी रह रह कर ऊँची उसासै ले अपने पूर्व पुरुषों के गुणानुवाद गाते और उनके निर्मल यश का आशख्यान तथा उनके महावीरोचित युद्धविक्रम की कथा सुनाते, श्रोताओं के रोमोत्कण्टाकित करते, और प्राचीन समय की स्वाधीनता का चित्रपट आँखों के आगे ला देते। यदि ऐसे अवसर पर आपके मूँ से उनके लिए क्षत्रिय शब्द निकल आये, तो अवश्य उनकी आँखों से आँसू निकल आयेंगे और कहेंगे कि हाय, अब भारत में क्षत्री कहाँ हैं यदि होते तो क्या गौ और ब्राह्मणों की यह दुर्दशा होती जो आज हम देख रहे हैं। और कालिदास के इसी श्लोक को पढ़ते पढ़ते अचेत हो जाते कि—"क्षतात्किलत्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दों भुर्व नेषुरूदः। राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तेः प्राणैरुपक्रोशमलीनसैर्वा।" भारत वा उसके उद्वार का नाम सुन उनके हृदय में एक अद्भुत आघात लगता और व्याकुल हो वे भारतेन्दु के उस महावाक्य को कहने लग जाते कि

"सब भाँति दैव प्रतिकूल होय यहि नाशा।
अब तजहु वीरवर भारत की सुभ आशा"।

किन्तु वे विद्या, विज्ञान और शिल्प की उन्नति के लिए अवश्य उद्योग करने की सम्मति देते, और कहते कि अब इसी से तुम्हारा जो कुछ कल्याण होना है सो होगा। राजनैतिक अान्दोलन को तो वे सर्वथा शून्य मानते और धर्म को केवल सत्पात्र में शिक्षा और उचित को उपदेश छोड़ उसका सर्व साधारण में व्याख्यान भी नहीं योग्य समझते, किन्तु सामाजिक सुधार एबम किसी विषय में विशेष उद्योग नहीं किया चाहते, क्योंकि अनेक देशी महाराज और उच्च श्रेणी के अंगरेज अधिकारियों ने इन्हें कई बार बड़े बड़े प्रतिष्ठित पद जिसमें बहुत कुछ धन लाभ की याशा थी देते, किन्तु इन्होंने यही कहा कि "ईश्वर ने मुझे स्वास्थ्य सुख दे दिया है जिसका मैं निरादर 'नहीं किया चाहता, और जो कुछ वह देता है उसी पर संतोष उचित है, द्रव्य के लोभ से दात्य अंगीकार करूँ!"

हमारे चौथे मित्र सर्वतोभावेन नवीन ज्योतिधारी मिस्टर निशाकर धर बैरिष्टर-एटाले हैं, जो कि एक बड़े बाप के बेटे विलायत जाकर वहाँ की सुहावनी सभ्यता लख प्रायः सभी अच्छे होटलों के खानों का स्वाद चख और सांसारिक अनेक ग्रानन्द के उपभोग में कोई कसर न रख, भली भाँति निरख