पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७६
प्रेमघन सर्वस्व

पूंछती कि "वेल'! श्राप काफी, चाय, विलायती पानी पीने माँग्टा१ वेल! ए क्या बाट है! कुछ खाओ, कुछ पियो!," जिसे सुन अनेक जन तो केवल धन्यवाद ही देते, पर जो एकाधे कुछ भी पी लेते तो आप अत्यन्त प्रसन्न हो जाती हैं।

हमारे मित्र जब कभी हम लोगों के घर आते तो मानो उपद्रव ही या जाता, क्योंकि वे जूता उतारते नहीं, भूमि पर बैठते नहीं, और हवादार स्वच्छ कमरे को छोड़ कहीं अड़ते नहीं। इसलिये हम लोग इन्हें देखते ही कुछ थोड़े और सभ्य हो जाते, चाहे स्वयम् भूमि ही पर बैठे, पर इनके बैठने के लिये एक स्वच्छ कुर्सी अवश्य मंगाते, और अपने मित्र को अत्यन्त आदर से बिटलाते, और पान इलायची देते, पर वे उसे फेंक कर चुरट माँगते और कहते कि—

"वेल! हमारा पागल दोस्त तुम लोग अबी जंटिलमैनसे ट्रीट करना बिलकुल नहीं जानता।" पान खाना तो जङ्गलीपन है, हम लोग तो चुरट पीता है, क्योंकि उससे मस्तिष्क में विचार शक्ति बिलकुल नहीं पाता है। अतः अपने मित्र के मस्तिष्क में विचार शक्ति उत्पन्न करने के लिए हम लोगों को चुरट भी देना पड़ता है, जब कभी वे श्याम्पेन के नशे से मस्त आते लब तो फिर कहना ही क्या है, अद्भुत आनन्द दिखाते और बातों की आँधी चलाते जो कुछ जी में आता कह चलते और हम लोग भी रास ढीली कर देते कि जिसमें वेरोक टोक बहक चलें। कभी तो आप लण्डन और फ्रान्स की गली कूचों और वहाँ की विलासिता का वर्णन करते, मन हरते, कभी वहाँ की विद्या कला-कुशलता,शिल्प-वैचित्रता, ऐश्वर्य और स्वच्छन्दता की कथा कह चित्त चौकन्ना करते। कभी जो इधर मुके तो शास्त्र और पुराणों ही की निन्दा कर ब्राहाणों को गाली दे देकर अग्रान कर चले, और बात बात में हम लोगों को जङ्गली और असभ्य बनाने लगे। कुशल इतना ही है कि हम लोग भी यदि कोई कड़ी बात कह देते, तो वे सह भी लेते और ऐसे सामाजिक और धर्म के वाद में वे उसे हँसी ही में टाल ले जाते थें। आप धर्म तो कोई भी नहीं मानते, क्योंकि यह भी मानो आज कल की अंगरेजी सभ्यता का सार, है, परन्तु हाँ ब्रह्म समाज और आर्य समाजादि से कुछ कुछ सहानुभूति रखते और कहते कि जो जितना अपने पुराने धर्म से आगे बढ़ता है उतना ही हम उसको धन्यवाद देता है। इसी से आप के आते ही हम लोग पोलिटिकल (राजनैतिक) या