पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/११

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भूमिका

उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चरण में वाणी के जिन साधकों ने हिन्दी को प्राणदान दिया है, उनमें प्रेमधन जी का अन्यतम स्थान है, वे आधुनिक हिन्दी के उन उन्नायकों और प्रवर्तकों में से हैं, जिन्होंने स्वान्तः सुखाय ही हिन्दी की सेवा द्विारा हिन्दी काव्यमंडल में अपना अमिट स्थान प्राम किया।

प्रेमघन और भारतेन्दु हिन्दी साहित्य के तत्कालीन धुधले आकारा में प्रतिभा सम्पन्न दो नक्षत्र थे जिन के प्रकाश से तत्कालीन टिमटिमाते हुए और नक्षत्र प्रकाश पाते थे।

मनुष्य के लिए अतीत की स्मृति में स्वाभाविक आकर्षण है। मनुष्य अतीत की स्मृति के खोज में, उसके रहस्यों के उद्घाटन में लोकोत्तर अन करता है। वही उसका मुक्तिलोक है जहाँ उसे अपना प्राचीन गौरव, प्राचीन आदर्श, प्राच परम्परा का मनोहर चित्र मिलता है। जिसमें उसे अपनेपन का गर्व, और अपने अस्तित्व की आस्था का पता चलता है। जहाँ, अतीत मनुष्य का मुक्तिलोक है वहाँ वर्तमान उसका कार्यक्षेत्र है, समय का चित्र है—जो अतीत सा मनोरम तो नहीं है, पर चिर सत्य है, जिसमें अपने व्यक्तिगत जीवन की मधुर और कटु अनुभवों की झाँकी है। "अवश्य ही वह अपूर्व और अनोखा मेला काशी के गौरव और गर्व का हेतु है, क्योंकि हम जानते हैं कि इस चाल का दूसरा मेला न कदाचित् भारत भर ही में वरञ्च सारे संसार में भी कहीं नहीं होता होगा। इस कारण कौतुक प्रिय लोगों के लिए इसे एक बार देख लेना मानो एक मुख्य विषय है, और नृत्य गान-रूप रसिक प्रेमियों के लिए तो निःसन्देह यह अवसर अलभ्य लाभ का का यों भी कहिए कि यह काल कराल काल ही है। जैसा कि किसी ने कहा है—

"डूब जायें कहीं गंगा में न काशी वाले,
नौजवानों का सनीचर है, "ये बुढ़वा मंगल"