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प्रेमघन सर्वस्व

लोग यूरप और अमरीका को न जायेंगे, उनकी आँखें न खुलेंगी, वे क्या वाणिज्य, क्या कृषि और क्या शिल्प और विज्ञान किसी में निपुण न होंगे वे मनुष्यता न सीखेंगे और न कुछ देश का हित कर सकेंगे। जब तक होटलों में अँगरेजों के साथ एक टेबिल पर खाना न खाँयगे उनमें सच्ची भक्ति कैसे होगी क्योंकि खाने पीने से ही प्रीति की भी वृद्धि होती है, जब तक हमारी स्त्रियाँ मुर्गियों की भाँति घर में दबे में बन्द रहेंगी, हमारी सच्ची उन्नति न होगी क्योंकि वे अर्धाङ्गिनी कहलाती हैं, बाल्य विवाह अनमेल ब्याह, जन्मपत्री को छोड़ों। माँ बाप का अधिकार उनसे छीनो, भली भाँति सोच समझ कर निरख परख और जाँच कर तब जन्म भर का सम्बन्ध जोड़ो, विधवा-विवाह करो, और जाति-भेद मिटानो, नहीं तो तुम लोग खराब जानोगे। विद्या आज केवल अंग्रेजी ही है, उसीको पढ़कर मनुष्य विद्वान् होगा, संस्कृत तो मृतप्राय भाषा है (Dead Language) उसका पढ़ाना तो भिखमङ्गी की वृद्धि कराना है, धर्म धर्म मत बको, धर्म और ब्राह्मणों ही ने हमारा सर्वनाश किया और इस दशा को पहुँचाकर छोड़ दिया है। अब तो उसका मूं काला करो और उसका नाम लेना छोड़ों। संसार को देखो कि क्या कर रहा है। जब हमी न रहेंगे तो धर्मशाला किस काम आयेगी! जो धर्म एक दम हमको खराब करने माँगता, उसको हम कभी नहीं माँगता, उस पर मारो गोली।

पाँचवे प्रतिष्टित मित्र हमारे रायबहादुर सेठ डरपोक मल जी हैं। आप वैश्य जाति के एक बड़े धनी महाजन हैं। प्रसिद्ध व्यापारी, और भूम्याधिकारी भी हैं। रूपया तो इतना अधिक बटोरा है कि उसी की लागत खोज और चिन्ता ही से आप चिन्तित रहते किन्तु आश्चर्य यह है कि फिर भी सन्तोष का कहीं लेश चित्त को छू नहीं गया, क्योंकि वे इसी सोच में सदा नियम रहते कि कैसे रूपया कमाएँ। आप पढ़े लिखे अच्छी भाँति केवल महाजनी-हिन्दी के अतिरिक कुछ नहीं हैं, पर धन के गर्व से आप अपने को सभी विद्या और भाषा का पण्डित मानने और बतलाते हैं। बातचीत करने में कैसा ही विद्वान् हो पर आप उसे चुटकियों में मूर्ख बना देते और अन्त को कह देते कि "आप की विद्या का हाल तो हम जान चुके, अब व्यर्थ की वकवाद सुनने का अवकाश हमें कहाँ है। कृपा कर चुप रहिए, वा घर जाइये।" यों तो यदि वे आप से मिलेंगे तो अच्छी रीति से बात करेंगे जो आप भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते जाँयः परन्तु यदि उन्हें कभी कहीं से भी लक्षित हो जाय कि आप का उनसे