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प्रेमघन सर्वस्व

उनके घर चले जाइये, तो देखिये कि आकाश से बातें करनेवाले महल में केवल एक दीपक द्वार ही पर जुगजुगा रहा है, मोढ़े भी दो एक टूटे पड़े हैं, वह आप को बिठला कर घर में जा देखेंगे कि पैसा नहीं है और न कहीं से मिलने की आशा है तो खाने का चावल बैंच कर भी यदि आप हिन्दू हैं तो पान, इलायची, तमाखू और इत्र अवश्य मंगा कर देंगे चाहे वह उस दिन घर भर उपास ही क्यों न कर जाँय और यदि मुसल्मान हैं तो आपको अवश्य अच्छा खाना खिलाएंगे और आप अपने कुनवे भर भूखे ही सो रहेंगे हाय! यह कैसा दिल है! हे भगवान् क्या तुम्हें इन्हीं बेचारों के दिल ऐसे बनाने थे। बस उसी वंश में के हमारे नव्याब साहिब भी हैं, यद्यपि इनकी दशा द्रव्य में उनसे बहुत अच्छी है, पर इसलिए कि स्वभाव वैसा ही है इससे इनका भी हाल कुछ वैसा ही रहता है।

आप को पाँच सौ रूपये महीने का वसीक़ा सरकार से मिलता है, पर किसी किसी महीने में हज़ार पन्द्रह सौ से कम खर्च नहीं पड़ता, अतः उनके घर के बड़े बड़े बेशकीमत जवाहिरात कौड़ियों के मोल समय समय पर बिकते जिन्हें देख सुन कर कुछ अद्भुत चोट चित्त पर श्री लगती है। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे नव्वाब साहिब फजूल खर्च हैं, क्योंकि बहुत ही कुशादःदिल, अमीरमिज़ाज, फैय्याज़ और ऐय्याश हैं, मुरव्वत तो आँखों में इस कदर है कि उसी से सरासर तवाह होते ही चले जाते और तर्क नहीं कर सकते। अनेक खुशामदी टट्ट और चापलूस खुर्राटों का वहीं जमघट जमारहता है जिनसे कि गर्मियों में ठण्ढा पानी और दो दम हक्के के भी उन्हें नहीं मिलने पाते। वे ऐसे बेहया है कि प्यास में सुराही की सुराही मुलगा कर खाली कर देते. और एक ही फूक में चिलम की जट्टी तक चूस जाते और दसरे की फर्माइश भी कर देते हैं। दस्तान लगा नहीं कि लोगों ने श्रास्तीन चढ़ा-चढ़ा कर दाढ़ी सवारनी शुरू की, इधर इनके मुंह से निकला कि "शुरू कीजिए" कि उधर बिस्मिल्लाह कह कर वे सब के सब चिराग़ पर परवाने से टूट पड़े। एक ने कुछ खाकर कहा,—"जनाबेबन्दा! आज का कलिया तो बहुत ही नफ़ीस पका, और शोरवा तो आवेहयात् का मज़ा चखा रहा है।" एक और बोले कि—"भई अाज का कोगा तो स्या कहिए। "दूसरे बोले" अजी। यह कहँगा कि कोर्स ऐसा लजीज तय्यार हा है कि "वायद वो शायद" तीसरे कहने लगे कि “सुवहान अल्लाह किस अन्दाज़ से कबाब भुना है कि वाह।" चौथे ने कहा कि "बखुदा ऐसा