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गुप्त गोष्ठी गाथा

दो प्याज़ा तो खाया ही न था।" पाँचवे ने कहा—"अहाहा हज़रत सच कहिये ऐसा पुलाव भी कभी ज़बाने शरीफ ने चखा था।" किसीने यखनी की तारीफ की तो किसी ने मछली को सब पर तर्जीह दी। कोई मुर्गी के अण्डों पर जबान चटचटाने लगे, तो कोई खुश्के की कहानी सुनाने लगा, कोई रोटियों की तारीफ़ तो कोई तरकारियों की सिफ़त कर चले, कोई अचार, कोई चटनी और कोई मुरब्बा और मिठाई की बड़ाई करने लगे; और नीचे देखिये तो खान मच कुल तश्तरियों के साफ हो गया। सारांश यह कि इन मुक्तखोरों की बदौलत बिचारे हमारे मित्र नव्याब साहिब को भर पेट खाना भी नसीब नहीं होता, क्योंकि यही सब चाट जाया करते हैं। हालांकि आपके बावर्ची खाने में यह आम हुक्म है कि कोई भी मिस्कीन मुसाफ़िर या मुहताज़ मुसल्मान आए तो उसे खाना ज़रूर दिया जाये, फिर वहाँ के रहने वालों के लिए तो कहना ही क्या है। इन लोगों के लिए तो रोज ही उम्दा खाने पकते, परन्तु ए उसे क्यों खाने लगे, खासे के दस्तान के ताक में बैंठे जमुहाई लिया करते हैं; और पंछा भी करते कि "हुज़र को खासा तनाउल फर्माने को नावक्त हुआ जाता है, गाया इस बहाने तकाज़ा करते और प्रास्त्रीर को मंगाई लेते।

इन लोगों में से कई असहाब तो नव्वाब कहलाते, बाकी कोई हाफिज़ कोई हाजी, कोई मुफ्ती, कोई काज़ी, कोई मोलवी और नाखून, कोई मीरसाहिब और कोई खाँ साहिब कहलाते। परन्तु हम इन साहिवों को मुफ्ती साहिब कहते हैं, क्योंकि सब के सब मुक्त के खाने वाले हैं। विचारे नवाब साहिब क्या करें जो हिन्दू होते तो घर में घुस चुपचाप चटपट चाभ चूभ कर चले मी पाते, पर हमेशा से इनका दीवान खाने में बैठ कर स्वाना खाने का मामूल है। हम लोगों के मित्र श्री सेठ डरपोक मल जी उनसे इसके लिये कुछ कहते भी तो वह उदास हो, यही इर्शाद फर्माते कि "अम्याँ, क्या कहते हो जिनके बुजुर्गों के पीछे हजारहाँ बन्दगाने खुदा के पेट पलते थे, उनका लड़का सारनी का भी चोर होकर, जहान में कैसे मुँह दिखा सकता है!"

न उन्हें सिर्फ खाना वञ्च सेरों अफीम और पंसेरियों गाँजा और चर्स भी फूक: के चाहिए। कोई साहिब मदक और कोई चन्डू का बम्बू मुंह में लगाए छोटे पर छोटे उड़ात, धूत्रों धक्कड़ मचाये रहतं, मगर यह सब केवल पुरानी चाल के लोग, और जो नई चाल के, और नई रोशनी वाले साहिब