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गुप्त गोष्ठी गाथा

रहते वहाँ के अँगरेज़ हाकिमों को तो अपना चेला बना लेते, और ऐसा रंग जमाते कि सारे ज़िले में इन्हीं की तूती बोलती। उम्माल और अहल्कार सब इन्हीं की ज़ियारत करते और डरते कि कहीं खान जाँय। यही कुशल भी है कि आप सरकारी नौकर होने के सबब से बाहर ही रहते जिससे नव्वाब साहिब कुछ बच रहे हैं, नहीं तो ए पूरा अपना रंग जमाई के छोड़ देते। गो कई गरगे इनके इसी काम के लिये चिपक रहे हैं, तो भी बगैर उस्ताद के कामयाब नहीं होते। इन लोगों की पहली ख्वाहिश यह है कि इन्हें शिया से सुन्नी और फिर नेचरिया मुसल्मान बनायें और पुरानी चाल के जो शरीफ़ मुसल्मान या इिन्द्र इनके यहाँ रहते हैं; दूर हटाये और अकेला अपना रंग जमा। परन्तु हमारे नव्वाब साहिब ऐसे भोले और ओछे भी नहीं कि जो इनकी बातों में आकर अपनी आँखे बन्द करलें, और उन्हीं की दिखलाई राह पर चल पड़े। वे इनके जवाब में यही कहते कि—"वन्दःपवर, यह आप क्या इशाद फर्मा रहे हैं, खुदा के लिए, ज़रा होश में आजाइये और अक्ल की दवा कीजिये, इस गिरती हुई कौम को और भाड़ में न झोकिये, लिल्लाह रहम कीजिये, और इस तकरीर की तेज तलवार से बहुतेरे बेगुनाह बिचारे भोले भाले मुसल्मानों को बर्गला कर जवह न कीजिये। कौमी दुश्मनी की आग न भड़काइथे, निफाक को और भी रौनक न दीजिये। सारत करे खुदा उन समझ वालों को जो पुश्त हा पुश्त से हिन्द में रहते और इसे अपना मुल्क नहीं मानते। जिन हिन्दु ग्रो से सालहामाल से बर्ताव एगानियत का चला आ रहा है, उनसे क्यों आज दुश्मनी शुरू की जाय? अब जैसी हिन्द में मुख्तलिफ़ जाते हैं एक मुसल्मान भी है, फिर क्यों हम सब बाख्खुदहा दुश्मन बनें। जब हम हाकिम और हिन्दू महकूम थे तब तो खैर कोई ज़रूरत और मौका ऐसा पा जाता था कि बगैर जङ्ग व जिहाद के तस्फिया गैर मुमकिन था। इल्ला! अब जब कि हम दोनों एक तीसरे की रिाया है, तो बाम रखड और पर्खाश की क्या जरूरत और मसलहत है। "आपके पीर-इ-मुर्शिद श्राप ही को मुबारक हों ऐसे तलौउन—तबा, शख्स की राय कि जिसमें कुछ भी इस्तिकलाल और इस्तिहकाम नहीं, जो ग्राज कुछ रहा है और कल कुछ कहाँ तक ऐसा भरोसा करना मुनासिब है इसे मैं खूब जानता हूँ। मेरा ख्याल हनोज वही है—और वाकई हमारा यह मुल्क हिन्दोस्तान दो कौम यानी हिन्दू और मुसल्मान से वैसा ही आबाद है, जैसे एक खूबसूरत चिहरे पर दो आँखें मुजैयब हो जो दोनों मिलकर बाइसे रौनक होती। काश उसमें से कोई एक

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