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गुप्त गोष्ठी गाथा

"न जाने खुदा को क्या मञ्जर है कि जिस्ने ऐसे मारे आस्तीन पैदा कर दिये हैं, जिनका कि कुछ इलाज ही नहीं सूझता जो कुछ नुक़सानात—अज़ीम इन हज्रात ने मज़्हिवे-इस्लाम को पहुँचाये हूँ उसका तो ज़िक्र ही क्या है। मैं जानता हूँ कि शायद हमारी कौम को भी गारत करके यह तहतुस्सरा को पहुंचाया चाहते हैं। हाय, क्या वक्त है और क्या पैरवी! अफ़सोस सद् अफसोस इनकी अक्ल पर जो बिला आगाज़ व अञ्जाम का ख्याल किये फित्न-इ-महशर मचाना चाहते हैं। रहम करे खुदा इन पर और इन्हें जल्द राहि रास्त पर लाये।" वह इनसे यही कहते कि-भाइयों अँगरेजी इल्म तोपोजरूर बिजजरूर पढ़ों, लेकिन साथ उस्के क्रिस्टान मत बनो, अँगरेजी काले कपड़े मत पहनो, खड़े होकर इस्तिता मत करो, डाढ़ी मत मुड़ानो, इसमें तुम्हारा क्या नुकसान है, अपनी बज़ा को मत तब्दील करो। हम कुछ हैवान और जंगली नहीं कि हमारी सब चाल और तरीके काबिलि तर्क हों, पस क्यों अँगरेज़ियत की तकलीद की जाय? हरगिज़ हरगिज़ इस्की पैरवी न करनी चाहिए, बल्कि इस बढ़ती हुई बहशत को रोकना मुनासिब है। इस अम्नों अमान के वक्त में बेफायदा मुल्क में नाक मत पैदा करो। क्यों किसी के बर्गलाने से बहक रहे हो। लिल्लाह सँभलो और होश में आऔ।

आप ही की तालीम और तबियत का यह असर है कि जो हमारे प्रिय मित्र नव्याब साहिब में बई बड़े औसाफ़िहमीदा पाये जाते हैं, आप ही की मुहब्बत का यह असर है जो आपमें हिन्दोस्तानी इमारत पूरे तौर पर मौजूद है। आप ही की बरकत है कि इन नीमटर अँगरेजीबाज़ों की बाज़ी यहाँ सदा हार में रहती, जिससे अब तक सब खान्दानी चाल ढाल और शानो शौकत बकरार है।

इन लोगों के इलावा हमारे मुअज़जिज़ इनायत-फर्मा के चन्द खास दोस्त भी हैं, जिनमें सब से बढ़कर नव्वाब मिजो हदिलअजीज़ बख्श बहादर हैं, जिनके प्यार का नाम प्यारे नवाब है। जो कि हमारे नव्याब साहिब से भी कमसिन व उनके लँगोटिया यार, हम मकतब, हममर्तबा, हमतबीयत, और दरअसल बहुत ही नेक मिज़ाज़ हैं। न उनका नाम ही हर्दिल अज़ीज है बल्कि वाकई वे हर्दिल अज़ीज़ है; और क्यों न हो, क्योंकि उनकी सूरत शक्ल बात चीत और अदा अन्दाज में गोया जादू का असर है। उनसे बातें करने लगिये तो क्या मजाल कि कहीं से फिर दीन व दुनिया की कोई फ़िक्र पास फटक जाय, बल्कि कुछ ऐसा मज़ा आये कि उठने को जी ही न चाहे। इसी