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गुप्त गोष्ठी गाथा

लेकिन हाकिम कुन्द जिहन है, नहीं समझता खैर। चलिए अपील से तो जिता ही देंगे, जरा मिहन्ताना भरपूर दिया कीजिए तो फिर हमारा लड़ना देखिये। मसल मशहूर है कि जितना गुड़ डालियेगा उतना ही मीठा शर्बत पीजिएगा।" जो कहीं मुकद्दमा जाता, तब तो फिर बस शुकराने की डिग्री इजरा हुई, और आपकी पगड़ी और दुपट्टा कुर्की में आया, और भी जो कुछ पाया और उठाया। निदान इसी भाँति हमारे मुन्शी जी दस बजे से चार बजे तक बगले की भाँति अपने बिस्तर पर बैठे ताक में लगे रहते, और उनके दोनों गुर्गे बधिकों की भाँति बात का लासा और घात का कम्पा लगाये, नई चिड़ियों के फँसाने को कचहरी के चारों ओर चक्कर लगाया करते हैं। जिसे तनिक भोला भाला पाया कि बस वहीं धर दबाया, और अन्त में उसे अपने फरेब के फन्दे में फँसा कर लँडूरा बना डाला, जो कुछ उनसे मिला उसमें एक हिस्सा तो हमारे मुन्शी जी का; और दूसरा दो इनका होता है। क्योंकि असली शिकार मारने वाले तो बही दोनों हैं, मुंशी जी तो केवल बूढ़े गिद्ध की भाँति अपने बिस्तर पर बैठे टुकुर-टुकुर ताका करते हैं और दूसरे के मारे जीव का मांस खाने वाले हैं। निदान इस भाँति जो कुछ दिन भर में कमाकर मुंशी जी घर लाते, वह सब सन्ध्या होते-होते उड़ा देते, क्योंकि चार बोतल शराब, और आठ सेर गोश्त में और उसके साथ के जरूरी लवाजमें ही में उसका एक बड़ा हिस्सा खप जाता, और सब घर-गिरस्ती का खर्च सी पीछे रहा। हमारे मुंशी जी का प्रातःकाल का समय तो केवल स्नान, ध्यान, जलपान, और पान तमाखू से जो बचता है वह मुवक्किलों के कागज पत्र के देख भाल और फिर कचहरी जाने में जाता है। सन्ध्या को जय श्राप कचहरी से पाते तो कुछ नाश्ता करके हुक्का पीते और फिर ज्ञान छाँटते हैं संसार को मिथ्या बतलाते, और विचित्र धर्म की चर्चा चलाते, और ऐसी ही अनेक बातें बतलाते हैं किन्तु हाँ यदि वहाँ श्रीमान् भयंकर भट्टाचार्य न हों। फिर शारीरिक कार्य से निवृत्त हो और लम्बी चौड़ी सन्ध्या पूजा करके कबाब और पापर चबा-चबा कर प्याले पर प्याले जमाते, और पनारू कलबार तथा कहरुल्लाह यों ही और भी दो एक वैसे ही काविल सुहबत लोगों से, जो शामिल दौर के रहते, ऐसी विचित्र बातें कर चलते कि सुनने बालों को बड़ा श्रानन्द अाता। इश्क और मजाक की बातें जब चलनी तब तो कहना ही क्या है। नहीं तो जब वे बदमस्त होते तो पनारू कलवार के पैरों पर गिर पड़ते, और दोनों हाथ जोड़ कर और गिड़गिड़ा कर कहते कि परमेश्वर के लिए बता