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प्रेमघन सर्वस्व

दो कि मेरा विस्तार कैसे होगा, मेरे कसूर कैसे मुआफ़ होंगे मेरे गुनाहों की बख़शिश क्योंकर होगी मैं तुम्हारे पाँवों पड़ता हूँ, बता दो तुम्हें अपने वाघ की कसम, अपने गुरु की कसम, अपने स्वामी जी की कसम, भाई इसी शराब की बोतल की कसम सच-सच बता दो पाठक! यह न समझिये कि वनारू इनके मुहर्रिर या नौकर हैं, बल्कि यह उनके मालिक में भी बढ़े हैं वह इनके गुरू बल्कि दादा शुरू हैं। न सिर्फ वे शराब के बनाने वाले और साकी हैं, बल्कि आप आर्य समाज के उपदेशक होने की वजह से भी इनके गुरू है। निदान ६ बजे रात से वहाँ इसीके आस-पास की अनेक बातें होती है जिनका विशेष बखान करना कठिन है। हाँ पाठक जन अनुमान अवश्य कर सकते हैं।

ऊपर का वृत्तान्त पढ़कर पढ़ने वाले महाशय यह न समझ लें कि हमारे मुंशी जी निरे निकम्मे लोगों में से हैं। नहीं कदापि नहीं, उनमें यदि दोष हूँदा जाय तो केवल इतना ही है कि-एक तो वे मुक्किलों से मिहनत लेने में उनका पित्तातक पी जाते हैं, सो यह तो उनकी आजीविका ही शहरी। दूसरे श्राप सोरह याने मुहर्रिरों के वश में रहते हैं विशेष कर पनाल कलवार के हाथ तो बिक ही गये हैं। मगर इसके भीतर कई तह भी हैं और सच तो अह है कि यदि ये लोग बिगड़ जाय, तो न केवल हमारे मुन्शी जोकी श्राजीविका में बाधा पड़े, वरञ्च उनका इस नगर में रहना भी कठिन हो जाय क्योंकि वे ऐसे ही अद्भुत धृतं और ऐय्यार हैं। उनके हाथों से फँसकर निकलना बहुत ही दुश्वार है। संयोग था हमारे मुन्शी जी इनके फन्दे में आ गये, और जब छा गये तो फिर कोई इलाज भी नहीं है। बहुतेरे लोगा जो इनके हाल को नहीं जानते. इन्हीं के कारण मुन्शी जी से भी प्रश्रद्धा करने लगे हैं।

मुन्शी जी के लड़के और अन्य लोग भी इनसे प्रसन्न नहीं, किन्तु क्या कर किसी की भी कुछ नहीं चलती। सब मन ही मन में बुरा माना करते हैं, मुँह पर नहीं लाते.. क्योंकि यदि वे इस भेद को जान जाँय तो बिना भली भाँति तंग किये न छोड़ें और नहीं तो किसी मद्यप से दस बीस गाली ही दिलवा दें, बा झंठा मुकदमा ही चलवा दें। परन्तु निश्चय हमारे मुन्शी जी बिचारे यह कुछ नहीं जानते जैसे-जैसे ए लोग नचाते हैं वैसे ही नाचा करते हैं। वे स्वयम् बहुत अच्छे आदमी हैं और यही कारण है कि इन्होंने जहाँ जहाँ नौकरी की, खैरख्वाह और दियानतदार माने गये। जन्न कमी मुन्शी साहिब हम लोगों की मण्डली में आते तो प्रथम प्रायः उस पुस्तक के रचयिता के नाम