पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(३)

मानव जीवन के नित्य और सामान्य स्वरूप से युक्त कर अपने काव्य को अमर करता हुआ दिखाई पड़ता है, जिससे हमें कवि के व्यापक मनोदृष्टि का परिचय मिलता है।

जिस प्रकार प्रेमघन जी के काव्य-कानन में कविता-कामिनी अपने पुष्य से भारतेन्दु युग की काव्य-बाटिका को सुवासित करती है, उसी प्रकार उनका गद्य काव्य भारतेन्दु युग में प्रेमघन जी को गद्य काव्य का उत्कृष्ट रचयिता सिद्ध करती है।

प्रेमघन जी का काव्य-क्षेत्र संकुचित न था। उनके समक्ष तत्कालीन सभी परिस्थितियाँ उपस्थित थीं, और उनकी बहुरंगी प्रतिभा सर्वतोमुखी होकर हिन्दी काव्य कानन "कलम की कारीगरी" दिखाती थी। हिन्दी गद्य के इतिहास की ओर जब हमारा ध्यान आकृष्ट होता है, उस समय हमें भारतेन्दु के पूर्व हिन्दी गद्य के विकास का प्रादुर्भाव भले ही दिखाई पड़े पर गद्य का कोई स्थिर स्पष्ट रूप तब तक नहीं दिखाई पड़ता है।

प्रेमघन जी ने गद्य को जो स्थिरता प्रदान की है, उसमें जो प्रौढ़ता और परिष्कार किया है वह उनके काव्य के अप्रकाशित होने के कारण हिन्दी संसार के समक्ष न पा सका इसका उत्तरदायित्व हम पर विशेष रूप से है।

काव्य का मानव जीवन से अन्यतम् सम्बन्ध है, सच पूछिए तो काव्य में मानव जीवन ही विविध रूपों में वर्णित रहता है। प्रेमघन जी का काव्य उनके जीवन की विविध घटनाओं से युक्त है जो समय समय पर उनके "कलम की कारीगरी" के रूप आनन्द में कादम्बिनी और नागरी नीरद की छटा से हिन्दी काव्याकाश को सुशोभित करता है।

भारतेन्दु युग नवीन और प्राचीन भावनाओं का संधि काल था। यदि एक ओर कवि प्राचीन परम्परा की महानता पर गर्वान्वित होता है, तो दूसरी ओर उसे नवीनता आकृष्ट करती है, पर अपने आदर्श और गौरव का जहाँ पर भी त्याग दिखाई पड़ता है, वहाँ वह क्षुभित होता है और अपने देश काल और जीवन की अनेक समस्याओं को लेकर अपने लेखों द्वारा अपनी भावनाओं को देश और समाज पर प्रकाशित करता हुआ दिखाई पड़ता है। लेखक प्राचीन आदों के पोषक के रूप में जहाँ दिखाई पड़ता है वहाँ कहता है:—"हम लोग वीर वंश के हैं, भारत वीर देश है, यद्यपि इसमें किसी को, सन्देह हो तो, है के स्थान पर था कह देने से कदाचित् फिर जिला संचालन