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गुप्त गोष्ठी गाथा

विशेषकर मेरे अन्य मित्रों ही ने उन्हें बहकाया, तब तो वे फिर चित्त हो गये। क्योंकि किसी-किसी महात्मा ने उन्हें यहाँ तक भर दिया कि देखो लिखा है कि हम लोग तो यह भी नहीं जानते कि आप सचमुच ब्राह्मण है वा नहीं यों ही कई लोग उन्हें और भी अपवाद लगाते हैं"—बताइये तो क्या यह सब सच है इत्यादि इत्यादि जिसे सुन वे फिर बहुत बिगड़े, और पुनः गालियाँ बकते मेरे घर आये, और कहने लगे कि "ये बातें कैसी हैं, हाय अब न तो कोई मेरे आगे किसी की कुछ बात कहता न मेरी कोई औषधी ही करता है, तूने तो मेरा सब उद्यम ही नष्ट कर डाला। मैं किस पाजी के घर पर धरना बैठा, और किस ससुरे की झूठी व्यवस्था पर हस्ताक्षर कर दिया वा किसको पुड़िया देकर मार डाला, इन सब का उत्तर दे, और यह बतला कि अब हम खाने कहाँ जाँय।" निदान फिर मैंने उनका हाथ गरमा कर उस बेला तो किसी भाँति से यद्यपि पिण्ड छुड़ाया, तो भी वे चारों ओर गालियाँ ही देते फिरे। क्या करें चिरञ्जीवी यंत्र भी लिख पड़े जिस कारण मानो उनका हाथ कट गया। वे मारे शौच के ऐसे दुबले होते जाते हैं, कि मुझे डर लगता है कि वे इसी शोच में कहीं मर न जाँय, क्योंकि उनके लक्षण कुछ ऐसे ही लख पड़ते हैं। मुख पर मुर्दनी छाती चली आती है। अब हम लोग उन्हें प्रसन्न करने की शोच में पड़ रहे हैं।

मिस्टर निशाकरधर वैरिष्टर और तो कोई हिन्दी पत्र हाथ से छूते भी नहीं क्योंकि वे कहते कि राजनैतिक विषय को तो हिन्दी पत्र सम्पादक जानते ही नहीं, और फिर यदि जाने और लिखे तो उसका फल भी कुछ नहीं, क्योंकि गवर्नमेण्ट तो उसे अज्ञों की सम्मति समझ कर कुछ ध्यान ही नहीं देती, और पाठक प्रजा वर्ग में उसके समझने की अभी शक्ति ही नहीं। सामाजिक सुधार जिसका कि कुछ फल सम्भव है, ये लोग लिखते ही नहीं। साहित्य में इसके स्वाद नहीं पाता और शेष विषय में अँगरेजी पत्रों से अच्छे नहीं। यदि उन्होंने अपना वृत्त देखा भी हो तो कदाचित् कुछ उसपर विशेष ध्यान नहीं दिया, इसलिये उनके सम्बन्ध में कोई अन्तर नहीं आया।

हमारे परम प्रिय और माननीय मित्रवर जनाब बेकारुद्दौला बहादुर ने जो अपना वृत्तान्त पढ़ कर हमको पत्र लिखा था यदि हम उसको यहाँ प्रकाशित कर दें, तो उनके विषय में फिर कुछ कहने की आवश्यकता न रहेगी। यद्यपि वह पत्र गुत है, तो भी जब हम उनकी सेवा में बहुत कुछ साहस कर चुके हैं जिस पर कि वे विशेष रच न हुए तो इतने अपराध के लिये उनकी