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प्रेमघन सर्वस्व

उदारता से यह आशा नहीं कि अधिक अकृपा के भागी बनाये जाँय। अतएव हम अपने पाठकों के लिए कड़ा जी कर के यहाँ उसे ज्यों का त्यों प्रकाशित कर देते हैं:—

"मुश्फ़िक़ि नामिहृबान खुसूसन् बर्हालि,
मुखलिसान् व मुहब्बि नाक़द्र दान,
या दोस्ति नादान अस्तगफ़िरूल्लाह,

वनऊज बिल्लाह

बाद शिकायाति हकांति नशाइस्ता व-आर्जू-इ-गाली गुफ़ा सरख्त हैरान हूँ कि लिखूँ तो क्या लिखूँ। क्योंकि अब तुम दोस्तों से दरपर्दः दुश्मनी का दम भरने लगे जिसका कि एक ज़माना शाहिद व शाकी है। मला आप ही फाहये कि यह कौन सी इन्सानियत है कि अपने एगानों के उमूराति खानगी बेगानों में बतलाए जाँय, और पर्द-इ-राज फाश कर दिखलाया जाय! वल्लाह तुमसे हर्गिज़ ऐसी उम्मेद न थी कि मारि अास्तीन का काम देगे। क्या हनोज तुम बदस्तूर साबिक दोस्ती का दम भरते हो? क्या तुम बतला सकते हो कि दुनिया में कहीं भी इस किस्म के दोस्त हैं, या होंगे, कि जो तुमारी तरह दोस्तों की मजम्मत करने और उनके एजाज़ में मज़रत पहुंचाने में इस दजे तक शौक रखते हो। बखदा, बस यही कहना पड़ता है कि ख़ुदा दुश्मनी से न दिखलाये हर्गिज़। जो कुछ दोस्त अपने से हम देखते हैं। खैर कता नज़र इसके कि आपने मुझे ज़लील और मतऊन किया, चन्द उन शुरफ़ा की निस्थत जो मूजिबिरौनक और एजाज़गरीबखाना है, और जिनका मुझको सर्फराज करना महज़ उनकी निवाज़िश और इनायत का बाइस है नेहायत ही ना मुलायम करीह और नाकाबिल अल्फाड इस्तेमाल किया है। और ऐसे-ऐसे नाजायज़ और नागवार इतिहास उन पर प्रायद किये हैं जो फ़िल्वांकः किसी शरीफ़ के हद्दे। बर्दाश्त से बाहर हैं। आप लिखे हैं कि "खुशामदी रडू और चापलूस खुरांट मुसलमानों का वहीं जमघट जमा रहता, जिससे कि गर्मियों में ठण्डा पानी और दो दम हुक्के के भी नहीं मिलने पाते, क्योंकि वे ऐसे बेहया है कि प्यास में सुराही की सुराही मूं में लगा कर खाली कर देते। फिर खाने का हाल लिखते हैं कि-"दस्तख्वान लगा नहीं कि लोगों ने आस्तीन चढ़ाकर डाढ़ी सवारनी शुरू की। इधर इनके मू से निकला कि शुरू कीजिये, कि उधर विस्मिल्लाह करके वे सब के सब चिराग़ पर पर्वाने से टूट पड़े x x x।