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प्रेमघन सर्वस्व


निदान ऐसी दशा में हम शेष और मित्रों के चरित्र कैसे वर्णन कर सकते हैं विशेषकर जब कि उनमें कई जनों ने बहत ही कठिनता से अपने विषय में मुझे लेखनी उठाने को भी शपथ दे निश्चय मित्रता सम्बन्ध त्याग के भय प्रदान पूर्वक वारण किया है। बिना बारण किये जिनके कुछ चरित्र लिखे गये जब वे इतने बिगड़ बैठे तो जिन्होंने बारम्बार बारण किया है उनके विषय में हट कर के फिर लिखना तो मानो जान बूझ कर अपने से उन्हें शत्रु बनाना और विशेष कर ऐसी अवस्था में जब कि हम देखते हैं कि आधे से अधिक मित्र तो एक भाँति हाथ से निकल गये। अब शेष को भी उन्हीं के साथ खो देना ठीक नहीं है। सुतरामू सम्प्रति हमारे पाटक अब शेष मित्रों का वृतान्त जानने की आशा छोड़े और जिनसे उनका परिचय हो गया है उनमें से उनका वृत्तान्त पड़कर अपना चित्त प्रसन्न करें।

१९४९ वै॰ ना॰ नी॰