पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१३७

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बनारस का बुढ़वा मङ्गल


अवश्य यह अपूर्व और अनोखा मेला काशी के गौरव और गर्व का हेतु है, क्योंकि हम जानते हैं कि इस चाल का दूसरा मेला न कदाचित् भारत भर ही में बरञ्च सारे संसार में भी कहीं नहीं होता होगा इस कारण कौतुक प्रिय लोगों के लिये इसे एक बार देख लेना मानो एक मुख्य विषय है, और नृत्य गान रूप रसिक प्रेमियों के लिये तो निःसंदेह यह अवसर अलभ्य लाभ का विषयों भी कहिए कि यह काल करालकाल ही है जैसा कि किसी ने कहा है "डूब जायें कहीं गंगा में न काशी वाले, नौजवानों का सनीचर है ये बुढ़वा मङ्गल"

यद्यपि हमारी आँखों में अब न यह काशी है, और न वह बुढ़वा मङ्गल, क्योंकि न वे लोग हैं, न वह समय, न वे अपने मित्र, न वह मंडली, न वह अपना सामान,न वह ममत्व और न मन का वह उत्साह है, न अपने को किसी से मिल बैठने का चाव, और न अपने में किसी का वह अभिन्न भाव, न उस उत्कण्ठित और अकृत्रिम वित से किसी का स्वागत और सत्कार की लालसा, और न अपने को उस आनन्द अनुभव को कभी भूलने की आशा है। हाँ! कुछ बहुत दिन की बात भी नहीं है मानो अभी कल काशी के अमल आकाश का चन्द्र वह प्यारा हरिश्चन्द्र जिसे लोग भारतेन्दु भी कहते हैं, प्रकाशित था, और काशी प्रभापुञ्ज-प्रकाशी सी दिखलाई पड़ती थी, जो उसके अस्त होने से बाज अंधकार राशी सी हो गई। यद्यपि बड़े बड़े भारी और ऊँचे स्थान के रहने वाले नक्षत्र तुल्य असंख्य सज्जन, और सूर्य तुल्य अन्य अनेक महानुभाव अद्यावधि यहीं विद्यमान हैं, परन्तु वह प्रकाश, वह मनोहरता, वह सुधा-सिञ्चन-शक्ति कहाँ है। नवीन वा सामान्य जनों के लिये काशी वही है,बुढ़वा मङ्गल भी वैसा ही होता है, परन्तु हाँ जिसके चित्त पर उस चन्द्र के चन्द्रिका की चमक पड़ी है, और सुधा-सीकर का स्पर्श हुआ है उनके लिये अवश्य ही वह बनारस बिना रस है यों तो अब भी राजघाट से अस्सी तक उसी भाँति सजी धजी संवावधि नौकाएँ दृष्टिगोचर होती हैं परन्तु प्रायः अचल भाव से भोसलाघाट पर स्थित

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