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प्रेमघन सर्वस्व

रहने बाली वह नौका जिसकी लाल पताका फहराती हुई, 'मङ्गलायतनो हरिः' की पुकार करती थीं कहाँ हैं, जिसके चारों ओर दर्शकों से भरी असंख्य किश्तियाँ धेरै पड़ी रहती थीं और जहाँ निरन्तर आनन्द का स्रोत प्रवाहित होता था, जिस पर बैठे आनन्द निमग्न लोग भूख प्यास भूले, निद्रा की शपथ खाये, यह नहीं समझ सकते थे कि कब सन्ध्या वा अधे रात्रि हुई अथवा प्रभात वा दोपहर हुआ। वहाँ हर घड़ी नई समा बंधी रहती थी, और कोई क्षण ऐसा न आता कि जब उठने वा सोने को जी चाहता, सच तो यह है तायफों के नाच में पार्श्ववर्ती दोनों भाड़ों की प्रशंसा में,जो क्रमशः इस रूप में होती थी, "यह चाल ही कुछ और है," यह बात ही कुछ और है, वह तर्ज ही कुछ निराली है,यह "कैड़ा ही कुछ जुदागाना है।" "यह रविश ही कुछ और है," "यह चाशनी ही कुछ दूसरी है," सबको मुग्ध करती थी यह दशा कदाचित इनकी दशा का यथार्थ चित्र न हो परन्तु भारतेन्दु की सभा पर तो यह पूर्णतया चरितार्थ होता ही है।

सुन्दर सुसज्जित उस विशाल नौका पर बीसों तायफों का जमघट जिसमें न केवल रंडियाँ ही, बरच मांड और कथक तथा अन्य अनेक प्रकार के गुणियों का संग्रह रहता कि जिसमें कोई भी काटने वा छाटने योग्य नहीं जो खड़ा हुया बस सबके मन को अपने हाथ में लिया। यदि किसी वारविलासिनी की रूप राशि और सौकुमार्य मन को विह्वलकारी,तो किसी के यौवन की शोभा हावभाव, और कटाक्षादि चित्त को चूर्ण करने में समर्थ, यदि किसी का गाना कहर का,तो दूसरे का बताना जहर का असर रखता। यों ही किसी के नाच की गति देख' मन की और ही गति होती, और प्रत्येक तोड़े दिल दर्पन को तोड़े डालते थे।

किश्ती के किसी कोने से नालों की नदी बहती, कहीं लोग कुरंग कटाक्षी की चोट से लालोट, तो कोई प्रेम के प्याले से लोटपोट, कोई गुणी रसिक जो इसमें डूबता,तो कोई प्रेमी जीवनाशा से ऊयता था,और शेप टकटकी लगाय: वाह वाह की रट लाए। सुधबुध गवाये, लिखित चित्र से स्थित हैं।

दर्शकों पर यदि दृष्टि दीजिये तो कदाचित वहाँ कोई व्यक्ति निर्गुणी वा मूढ़ मस्तिष्क दृष्टिगोचर न होगा,वरच एक से एक पण्डित रसिक, धनी, मानी, प्रेमी और विद्वानजन विद्यमान और न एक विद्या का केवल एक ही नगर वा वेश वा स्वभाव के प्रत्युत सी देशकाल और चाल के, सज्जनों का सारांश सामने सुशोभित रहता इसी कारण कहीं का कैसा भी किसी विषय का गुणी वा