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बनारस का बुढ़वा मंगल

पंडित वहाँ क्यों न जा पहुँचता, अवश्य ही यह अपने मेल के दो चार मनुष्य ऐसे पाता कि जो एक साथ कहीं अन्य स्थान पर कदाचित् संयोगात ही मिलते, अतएव सब प्रकार के गुणी और विद्वानों का यही विश्वास रहता कि यहाँ मेरे सूक्ष्म से सूक्ष्म, गुण के ज्ञाता समूह विद्यमान है। विशेषतः उसकी निज मण्डली तो मानो विक्रमादित्य वा अकबर के नवरत्नों का स्मरण करानेवाली थी, जिनमें दो चार तो ऐसे बहुदेशी गुणाकर थे कि जिनका वर्णन ही नहीं हो सकता इसी कारण सामान्यतः सदी विषयक विशेषतः रस, राग, अनुराग और काव्य का तो मानो वहाँ कोष ही खुला रहता।

उस सभा में समापति का कोई प्रासन विशेष नहीं रहता था, और मुख्य वा प्रधान स्थान पर भी प्रायः मालिक मजलिस नहीं बैठता था, वरच कोई कोरा प्रतिष्ठित, वा यथार्थ प्रतिष्ठित और वह चन्द्र किसी नियमित स्थान पर नहीं,बरच जब जहाँ जी चाहा बा अवकाश मिला था सुशोभित हुआ जैसे कि सच्च। चन्द्र एक स्थान पर स्थित नहीं रहता यौही वह उस सज्जनों की सभा में विशेष वस्त्राभूषण वा पालड्वाल से नहीं, वरच असंख्य तारागणों के मध्य स्वतः चन्द्र के समान सबसे पहचाना जाता था। किसी ने सच कहा है कि

"नहीं मुहताज ज़ेवर का जिसे खूबी खुदा ने दी।
कि जैसे खुशनुमा लगता है देखो चाँद विन गहनें॥[१]"

प्रिय पाठक यह केवल कविता नहीं, हमने भी उसे यों ही बे किसी के बताये पहचाना था, जैसा कि—

मोहनी मूरति मैन मई अरु माधुरीं या मन माँहि अमन्द है।
सूधे सुभाय सनेह लसै त्यों वसै रसहू को तहीं छल छन्द है॥
मूरतिमान सिंगार हिए घन प्रेम विहार सदा नँद नन्द है।
साँवरी सूरति वेष विचित्र ते जान्यों परै कै यह हरिचन्द है

उस मजलिस में यह न था, कि तायफ़ा खड़ा हो कर मन माना जो चाहे नाचगा कर समय विताये, वरञ्च गाने में समय के अनकूल राग रागिनी,सच्चे स्वर और साँचे की ढली लय में होनी तो, आवश्यक ही है, आगे तान बाज़ी और गले के दम खम का दिखलाना तो योग्यता-नुसार प्रसन्नता का हेतु हैं। भाव प्रदर्शन भी उचित और आवश्यक मात्र ही होता योंही नृत्य में गति और तोड़े ताल और टकसाल के ढले होना परमावश्यक था। हाँ इसके


  1. गहनें=ग्रहण