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प्रेमघन सर्वस्व

रान्त निपुणता और पााण्डत्य प्रदर्शन की गणना विशेषता में होती। इसके अतिरिक्त गीत में भाषा, भाव, तथा छन्द भी समय समाज और श्रोताओं की रुचि के विरूद्ध न होना चाहिये। क्योंकि कहीं कुछ भी इसके विरुद्ध होते वहीं अनेक नासिकाएँ सिकुड़ जाँयेगी, बहुतेरी भौहें टेढ़ी होगी, चन्द चींवजवीं होंगे, और उस चन्द (चन्द्र) का चित्त चञ्चल होते वा नजर बदलते ही नाजिर की नजर किसी दूसरे ही के उठाने पर उठेगी। इसीसे जो गायकी वा नर्तक वहाँ आ खड़ा होता अपने, गुण की परीक्षा सी देता और प्रत्येक मधुर' तान यथार्थ भाव और तुले तोड़े की उचित दाद पाता और विलक्षणता आते ही वाह, बाह, की मोड़ लगी देख आनन्दोन्मत्त दशा को पहुंचता था, क्योंकि बह ऐसी सामान्य सभा तो थी ही नहीं,कि सुफेद पोश गँवार वा माननीय मूढ लोग व्यर्थ भी शतवलचियों की भाँति सिर हिला हिला कर वाह-वाह करते रहें, और साथही साथ साथियों से धीरे धीरे कहते भी जॉय कि—"तनिक बिना वाह: वाह किए गवैया का दिल नहीं बढ़ता। "प्रायः देखा गया है कि अनेक अपूर्व गुणियों के मुजरे के समय तो यह दशा भी पहुँचती कि उनके गाने बताने वा नाच के गति को समझ कर दाद देने में केवल दो ही चार के मुख . से वाह निकलती, वा सिर हिलता। यों ही कभी तो एक के मुँह से वाह निकली. तो कभी दूसरे के, कभी सब के सब चुप सोच रहे हैं, और समझने पर प्रसन्न हो कर एक ने कहा कि वाह, तो उधर मुक झुक कर सलाम होने लगे, और आवाज आने लगी, कि खुदा हुजूर को सलामत रक्खे, कभी इधर गज़ल का पहला मिसरा गाया गया और उधर मिसरये सानी के काफ़िये बतलाने लोगों, ने प्रारम्भ कर अपनी योग्यता की परीक्षा सी देने लगे। कभी कोई पास होता है तो कोई फेल, कभी भाव बताने, अर्थ समझाने पर नुक्ताचीनी होती, तो कभी ठुमरियों और गज़लों के शेरों पर इस्लाह दी जार ही हैं,कभी जोड़ की कविता वा नवीन रचना होती जाती, और कभी उर्दू के शेरों पर हिन्दी के छन्दों ही में बात चीत हो रही है और सभा इस भाँति अपनी अलौकिकता प्रमाणित सी कर रही है।

पाठक! मैं क्या कह गया, और आप ने क्या समझा, क्या यही, कि सुन्दर नाचना, सुन्दर गाना और सुन्दर बताना; और विना इसके वहाँ ठिकाना लगने का नहीं! मैने प्रायःदेखा किन कुछ विशेष सुन्दर गाना है, न बताना; और नाचने का तो नाम कौन लेगा, अरे राम राम शिव शिव कहीं कुछ भी नहीं बस जो एक विद्युत प्रभा सी आकर आगे खड़ी हो गई तो