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बनारस का बुढ़वा मंगल

सब की आँखों में चकाचोंध सा आगई, गाने मे उस कन्दर्प कामिनी के कोकिल कण्ठ का कल आलाप, सप्त स्वर के स्वाद को सहज ही सामान्य बनाता, आम के नाम को भुलाता, और मूर्छना को मोह मूली से मूर्छित तथा लय को लय कर, केवल स्वयम्मू र्तिमान रागिनी सी उसे प्रतीत करा देता। उस ससि मुखी सुहासिनी का सामान्य त्वाभाविक विलास सुधासीकर सा, सुख दे समस्त भावो को तुच्छीकृत करता, उस वक्त भौहौं का सिकुड़ना और मधुर अधर का मुड़ना, मानों महा प्रलय का उत्पात प्रारम्भ होना था। उन चञ्चल लोचनों का हेर फेर बड़े बड़े चतुरों के वित्त को चूर चूर कर धूर में मिलाता, और मन्द मुस्कराहट माना मनुष्य के मन को मोह मानस में बलात डुबोती थी, फिर ऐसी अवस्था उत्पन्न होने से कहिये तो किसे गाने और बताने के गुण दोष की परख का का शान रहता, जबकि वह समस्त समा पूर्वोक्त व्यापार रहित हो केवल खिंचे चित्र के स्वरूप में आ जाती, और न एक, वरच एकही रात में अनेक बार ऐसे अवसर आ उपस्थित होते फिर न केवल उतनी ही बेर तक कि जब तक उस अद्भुत रस का अभिनय आरम्भ रहता, वरञ्च पश्चात् भी उस विष का प्रभाव बना रहता और अनेकों को साँप की लहर सी बाया करती। कहीं कलकत्ते से आये बाबू साहिब बिलख रहे हैं, "कि बापरे! बाप ये क्या रण्डी है, नाकी एक दो म म शाक्खात रोती हाम मे तो एशा कोभी देखा नही, ये बाई जो क्या बनारस का है। जिसका उत्तर एक लखनऊ के नवाब साहिब देते हैं, कि अजी नहीं ये तो लखनऊ की है, मगर बनारस के भी कई कयामत के नमूने हैं, जरा उनकी बारो भी पाने दीजिये, पर जनाब। मैं तो उस बङ्गालन के होठ के, मरोड़ पर मर रहा हूँ" निदान अब वहाँ किसकी कौन कौन सी दशा दिखलाई जाय, कुछ इसीसे अनुमान कर लीजिये। समय के नियम का यह हाल कि यदि मङ्गल की भैरवी और कही आठ बजे समाप्त हुई तो यहाँ ११ बजे दिन को, दडल का, तमाशा सब जगह दस बजे रात समाप्त हुआ, तो यहाँ आठ बजे दिन को, और कही यहि तीन दिन मेला रहा तो यहाँ पाँच दिन तक तबले खड़कने रहे। फिर यह भी नहीं कि केवल इसी रग मे सारी सभा सदा रगी समझिये, वरञ्च अनेक दूसरी विद्या विषयक जो वार्ताएँ प्रारम्भ हुई, तो पहरों बीत गये। बहुतेरा को इमका भी ज्ञान नही, कि कहाँ नाच होता है, और कहाँ जाना।

सुग्न सामग्री के सञ्चय की यह दशा किं एक नौका यदि सब प्रकार भोजन पान की सामग्री सहित अलग खड़ी है, तो एक शयनागार का कार्य देती; कोई