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प्रेमघन सर्वस्व


वाह आज तो स्टेशन दाल की मंडी को मात कर रहा है इधर रडियों का समूह तो उधर दर्शकों का झूंड, इधर मिर्जापुर और प्रयाग, तो उधर पटना और कलकत्ते की चालान। वाह यह छमाछम का कलख सुन कैसे लोग शीघ्र गति से चलने लगे हैं। कोई खीस बाकर पूछता है कि "माशा तुमार नेवास कोता" एक बोलताकि—"माशा नही माशी कहो नही दन्त सकार क उच्चारण करो" "भाई जिसका जैसा नाता हो" हाँ माशा तुमार नाम की आछी" "ओवीर-और ये "हीरी दाशी" आय हाय! यह अवीर और यह होरी। होरी होरी यह तो मन मे होरी लग गई" मै इस लीला को देख जो निक्ट पहेचा, तो देखता हूँ कि मेरा एक लखनऊ का मित्र यो बावला सा बेहाल घूमत्ता वैतलमाल बन रहा है, मुझे देखते ही वह दौड़ कर आ लिपटा, पूछा कि भई तुम कहा, "कहा कि जहाँ जान वहाँ" दो दिन बहुत दिल को समझाया, मगर उसने एक न सुना, और यहाँ लापटका। आखिर आ पहुँचा। बस चदो चहा नही गाड़ी खुलती है, का शब्द सुन हम लोग भी टेल पेल कर रेल पर चढ़ बैठे। हमारा लखनौआ मित्र यद्यपि फर्स्ट क्लास का टिकट लिये था पर कूद कर थर्ड क्लास मे यह कहता हुई जा घुसा कि ऐसी अक्ल पर खुदा की मार है। तुम पर तो शामत्त सवार है मियों आज तीसरे ही दरजे पर बहार है खैर चलो अगर जीते जागते बचे रहे तो राजघाट पर फिर मिलेगे। इतने में सीटी बजी रेल चली, हम लोग अपने उस मित्र की इस विचिन दशा पर हसते हसाते राजघाट पहुंचे।

देखते हैं कि राजघाट पर हमारे मित्र ही का राज्य हो रहा और एक उसी के नाम की तूती बोल रही है। उनके नौकरों ने पहले ही पहुँच बीसों बगियाँ किराए करके बयाने दे दिये और भाड़े की गाड़ियाँ उन्ही की ओर से सब को बँट रही है, जिसके लिये अनेक सुमुखियों तो गिड़गिड़ाने गिड़ाती और कई सुश्रषा करने पर भी इहसान से झिझक रही हैं। किसी को पान दिया जाता, तो किसी से वादा लिया जाता है मानो रेल से उतरी अधिकाश रड़ियाँ इन्ही के बरात मे नाचने आई हैं। निदान किसा किसी भॉति हम लोग अपने उस अनाखे मित्र को पकड कर अपने साथ ले चले और एक बनारसी मित्र के घर जा पहुंचे देखते हैं कि लोग गुलाबी पोशाक पर गुलाब का इत्र लगा रहे हैं, हम लोगो का पहुँचना क्या था मानो हाली के अखाडे का आना था। अहा, हा, हा, हा वाह जनाब केवल आपी के इन्तजार मे हम लोग बैठे हैं "अभी निपोलियन के प्रश्न ने उत्तर दिया, कि वह भाये और धन्य। कि आप यह