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बनारस का बुढ़वा मंगल

"चैत की नीदिया रे अखिया आलसानी हो समा, तोरे उपराँ रे जियरा मोरा जाला हो रामा"

इत्यादि-इत्यादि बनारस की अनोखी लयदारी के सग इस चैती गान की तान इस समय प्रेमी राग रसिकों के कान मे क्या काम करती है, यह केवल अनुभव का विषय है। कही कथर थिरकते तो कहीं कलावत, माँड रागिनी गाकर माड़वारियों को भी मस्त किये देते, कही भादो का तालियाँ बजती, तो कहीं कव्वाला की नकले होती, कहीं गवाँर लोग तन भड भड लगाये, तो कहीं जोगीडें होली मचाये भड़तल्ले की ताल पर ललकार रहे हैं। "कि हाँ जोगी जी, हाँ जोगी जी "तेलिया नाला बहै पनाला राजघाट पर काई, जहाँ तुमारी बहिन विनाही तहाँ हमारा भाई। रे पर देख चली जा, जानी पर हाँ।" वे इसी के बीच बीच अनेक आवश्यक और ऐतिहासिक बाते भी कहते जैसे कि—"दयाबाद दर्यावकिनारा खुर्दाबाद निशानी, अकबर शाह ने किला बनाया जमुना जी का पानी"। इत्यादि इत्यादि—

यह सव लीला देवते दिखाते कई चक्कर लगाते अपने उस भूले मित्र को दृढते हम लोग यक गये परन्तु उनकी झलक भी दिखलाईन पडी। कैसे लगे "पता यों उस बुते काफिर का हैरां हूँ,

"बनारस में दारू मन्दिरा के लाखो शिवाले हैं।"

इस भारी मेले के झमेले में किसी भूले भटके अकेले दुकेले का पता चलना कुछ महज नहीं।

बम इसी हेर फेर और साच विचार में प्रभात बात बहने लगा, पूर्वदिशा अपने प्रिय प्रभाकर को पाकर मद मद मुस्कुराना प्रारम्भ करने लगी लजा वश ज्यों ज्यों तारावलियो ने अपना मूं छिपाना प्रारम्भ किया, कि इधर फरश लोग नौकाओं के झाड फानूम की बत्तियाँ भी बुझा चले। जिस तम को ये असख्य ज्योतियों न दूर कर सकी थी, भगवान भास्कर की दो चार किरना ने श्राकर नाशकर दिया। अन्य कुछ औरही शोभाहो चली, रात बीत गई दिन दिखलाई देने लगा उजेले मे दूर-दूर की भी हर ओर नौकाए पहचान पड़ने लगी। घाट छोड़ नौकाश्रो के झूमड धारा में पड़ चले, सब राग रागिनियों का गाना बन्द हुआ। अब केवल भैरवी हो रग का सनाका सुर सारे सुरसरिंधार पर सुनाई दे रहा है। —कही—"पनिघटका रोके ठाढो"

"तड़प तड़प सारी रैन गुजारी करवटिया लेन दे॰"